देवेंद्र गौतम
सोशल मीडिया के इस जमाने में हर पर्व त्योहार या धार्मिक आयोजन के
मौके पर कोई न कोई कथित वामपंथी विद्वान उसे ढोंग, ढकोसला, अंधविश्वास आदि करार दे
ही देता है। फिर दक्षिणपंथी खेमे से इसके जवाबी पोस्ट आने लगते हैं। इस क्रम में
भाषा की मर्यादा तक ताक़ पर रख दी जाती है। सच्चाई यह है कि दोनो ही अपने-अपने ढंग
के रूढ़िवाद से ग्रसित हैं। अपने कालखंड की विशिष्टताओं, ज्ञान-विज्ञान से पूरी
तरह के कटे हुए। लकीर के फकीर। वामपंथ चीजों को वैज्ञानिक नजरिए से देखने और
तार्किक तरीके से विश्लेषण करने की प्रेरणा देता है। लेकिन वामपंथी अपने पूर्वजों
यानी मार्क्स, लेनिन, माओ आदि की कही बातों के आधार पर अपनी धारणा बनाते हैं और
विभिन्न मंचों से व्यक्त करते हैं। इस क्रम में सामयिक घटनाओं और प्रवृतियों का
विश्लेषम तो हो जाता है लेकिन धर्म और अध्यात्म के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं
हो पाते। सवाल है कि क्या मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और माओं के देहांत के बाद
विज्ञान का विकास रुक गया था? समय का पहिया थम गया था? उनकी प्रस्थापनाओं में कुछ नया जोड़ने की
जरूरत नहीं है?
हाल के वर्षों में देशी-निदेशी विश्वविद्यालयों में जो शोध हुए हैं
उनसे पता चलता है कि धार्मिक परंपराओं और रीति-रिवाजों के अंदर भी विज्ञान है। आधुनिक
विज्ञान परमाणु से विकसित हुआ है तो आध्यात्मिक विज्ञान। विशुद्ध ऊर्जा, महाशून्य,
कास्मिक रेज अथवा ब्रह्म से। आधुनिक शोधों से धर्म और विज्ञान के बीच की दूरी
निरंतर कम होती जा रही है। माना जा रहा है कि धार्मिक ग्रंथों में वैज्ञानिक बातों
को अंधविश्वास की भाषा में कहा गया है। संभवतः यह उस काल के बौद्धिक और सामान्य जन
की चेतना के स्तर में अंतर के कारण किया गया हो। ठीक उसी तरह जैसे इतिहास को
मिथिहास की भाषा में लिखा गया था। वैज्ञानिक स्वयं स्वीकार करते हैं कि यह भूमंडल
और जीवमंडल अरवों-खरबों वर्षों से अस्तित्व में है। तो क्या यह मान लिया जाए कि
मानव सभ्यता हड़प्पा, मिश्र और मेसेपोटानिया से पहले नहीं रही रही होगी इसलिए कि
हम उससे अवगत नहीं हैं। तो क्या धर्मग्रंथों में जो बातें अंधविश्वास की भाषा में
कही गई हैं उन्हें वैज्ञानिक भाषा में नहीं कहा जाना चाहिए? क्योंकि वामपंष के पूर्वजों ने उन्हें
सिरे से नकार दिया था? धर्म के प्रति पूर्वाग्रह पूर्ण नकारात्मक धारणा के कारण ही वामपंथ
की धारा सिमटती और व्यापक जन समुदाय से कटती जा रही है। भाकपा माले के पूर्व
महासचिव विनोद मिश्र ने कहा था कि धर्म व्यक्तिगत आस्था की चीज है, उसे इसी रूप
में स्वीकार करना चाहिए। अगर माओ ने धर्म को अफीम करार दिया तो इसका कारण था कि उस
समय तक उसके अंदर की वैज्ञानिकता की पड़ताल नहीं की गई थी। अब जब उसका वैज्ञानिक
विश्लेषण किया जा रहा है तो क्या इसे इसलिए अस्वीकार कर देना चाहिए कि वामपंथ के
पूर्वजों ने स्वीकार नहीं किया था। स्थापित प्रस्थापना को मानने और बनी बनाई लीक पर
चलना कत्तई वामपंथ नहीं है। यह एक किस्म का रूढ़िवाद है। हर विचारधारा अपने उदयकाल
में सर्वाधिक आधुनिक और प्रासंगिक होती है लेकिन कालांतर में जब वह अपने समय, काल,
परिस्थितियों और ज्ञान-विज्ञान के विकास के अनुरूप परिमार्जित नहीं होती तो रूढ़
होने लगती है। वामपंथ का रूढ़िवाद अभी शैशवकाल में है। इससे छुटकारा पाया जा सकता
है। दक्षिणपंथ का रूढ़िवाद क्रोनिक है। से दूर करने के लिए वामपंथ को ही आगे आना
होगा लेकिन अपने रूढ़िवाद से मुक्त होने के बाद। दक्षिणपंथियों को रूढ़िवादी और
ढपोरपंथी क्यों कहा जाता है? इसीलिए न कि वे सदियों से स्थापित प्रस्थापनाओं
के अनुरूप आचरण करते हैं। पूर्वजों की हर बात को ब्रह्मवाक्य मानते हैं। अगर
वामपंथी भी यही करते रहेंगे तो फिर वामपंथी और दक्षिणपंथी में अंतर क्या है? दोनों अपने-अपने
पूर्वजों की कही बातों को ब्रह्मवाक्य मानकर चलते हैं।
दक्षिणपंथियों की समस्या यह है कि वे विज्ञान को अपना शत्रु मानते
हैं। ठीक जैसे वामपंथी धर्म को पूरी तरह अवैज्ञानिक मानते हैं। लेकिन यह ध्यान रखा
जाना चाहिए कि हम न तो आदिम युग में जी रहे हैं और न 19 वीं शताब्दी में। यह 21
वीं सदी है। कम से कम अब तो पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर चीजों को नए सिरे से देखने
का प्रयास करें। अभी दुर्गा पूजा, दीपावली, छठ आदि पर्वों के मौसम में एक दूसरे पर
कटाक्ष करने की जगह अगर इनके अंदर के वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक तथ्यों पर स्वस्थ
चर्चा करते तो हम सबका बौद्धिक विकास होता। आमलोगों को नए नज़रिए से चीजों को
देखने की प्रेरणा मिलती। लेकिन मुझे लगता है कि सारी चीजें अंततः राजनीति पर आकर
टिक जाती हैं। नास्तिकता और आस्तिकता के आधार पर जनता को विभाजित करने का मकसद
ज्यादा होता है। स्वस्थ बहस और लोक शिक्षण का मकसद कम होता है। यही विडंबना है।
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