झारखंड की राजधानी
रांची की फज़ा में जहर घोलने का षडयंत्र रचा जा रहा है तरह-तरह की अफवाहें फैलाई
जा रही हैं। शांतिपूर्ण जनजीवन में खलल डाला जा रहा है । लोग भी कान टटोलने की जगह
कौवे के पीछे भागने लग जा रहे हैं। रोज किसी न किसी इलाके में तनाव और झड़प की खबर
आ रही है। छोटी-छोटी बातें बड़ा आकार ग्रहण कर ले रही हैं। यदि पकड़े नहीं गए तो शरारती
तत्व झारखंड के दूसरे इलाकों को भी निशाना बना सकते हैं।
पुलिस-प्रशासन
मुस्तैदी से स्थिति को नियंत्रित कर ले रही है लेकिन शरारत की साजिश कहां से रची
जा रही है, पता नहीं चल पा रहा है। आम लोगों में भय व्याप्त है। सुरक्षा बलों की
तैनाती बढ़ा दी गई है लेकिन जबतक षडयंत्रकारी पकड़े नहीं जाते माहौल शांत होने के
आसार नहीं दिखते। उसपर भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन के प्रस्ताव को लेकर विपक्षी
दलों का आक्रामक रुख शांति व्यवस्था के प्रति एक नए खतरे की आशंका को बल दे रहा
है। वे अपनी लड़ाई सड़कों पर लाने की जगह यदि विधायिका और न्यायपालिका तक महदूद
रखते तो ज्यादा असर छोड़ जाते। लोगों की भरपूर सहानुभूति का पात्र बनते। सरकार पर
दबाव डालने के और भी तरीके हो सकते हैं।
सरकारी तंत्र तो
माहौल को शांत करने का हर संभव प्रयास कर रहा है लेकिन ऐसे में राजनीतिक दलों,
सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों और शांति समितियों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उनके
सदस्य अपने-अपने इलाके पर नज़र रख सकते हैं और अफवाहों का तत्काल खंडन कर, विभिन्न
समुदायों के बीच भाईचारा कायम करने में भूमिका अदा कर सकते हैं। सिर्फ बैठक करने
से या शांति जूलूस निकालने से काम नहीं चलने वाला। जिम्मेदार नागरिकों को अपनी
सामाजिक जिम्मेदारी निभाने को आगे आना होगा। चुनावी लाभ-हानि के गणित से भी इसे
दूर रखा जाना चाहिए।
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