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रविवार, 2 जून 2024

द पूअर थिएटर कंपनी में शेक्सपियर लिखित नाटक ओथेलो का भव्य मंचन

 मुंबईः बीती रात द पूअर थिएटर कंपनी, वेदा फैक्ट्री के सहयोग से शेक्सपियर के ओथेलो नाटक शेक्सपियर का शानदार मंचन हुआ। हिंदुस्तानी में अनुवादित इस नाटक का निर्देशन तौकीर आलम खान ने किया था। अलग-अलग तारीखों पर प्रदर्शन करने वाले अभिनेताओं के दो सेटों में विभाजित  30 कलाकारों  के एक समूह ने इसकी प्रस्तुति की। यह शेक्सपियर के साहित्य का भारतीय शैली का प्रस्तुतिकरण था।




ओथेलो का किरदार पंचायत फेम दुर्गेश कुमार उर्फ बनराकस ने निभाया और दुनिया को अपनी प्रतिभा लाइव दिखा कर दर्शकों का मनमोह लिया। निर्देशक ने दूसरे सेट में ओथेलो का किरदार निभाने की जिम्मेदारी ली हुई थी, इनके भी किरदार का लोगो से बहुत प्यार मिला ।

विलेन की भूमिका में हिमांशु राज तालरेजा थे जिन्होंने दोनों ही शो में अपने एक्टिंग से चार चांद लगा दिए और थिएटर देखने आए दर्शकों ने इनके इस अभिनय के लिए जमकर तालियों से स्वागत किया और सारे कलाकारों की मदद से दोनों शो सफल रहे। दर्शकों की अपार भीड़  शो खत्म होने पर लगातार ताली बजाती रहे और सबकी तारीफ की।

कलाकारों की बात करे तो संजना विज, मानसी सहगल, प्राची पटवारी, कुमार सौरभ, अरुण पाठक, नंदिता सिंह, वैशाली, राजन शर्मा, शिशिर सिंह, स्पंदन मोदी, फिरोज चौधरी, शहंशाह सम्राट, मनीष यादव, निश्चय उपाध्याय, दिलीप गौतम, शुभम कश्यप, रोहित फोगाट और आलोक.  निर्माता : संपत सिंह राठौर, दुर्गेश कुमार और हिमांशु राज तलरेजा प्रोडक्शन डिजाइनर उज्जवल कुमार, कॉस्ट्यूम डिजाइनर स्नेहा कुमार, म्यूजिक डायरेक्टर विनर राणाडिव का योगदान महत्वपूर्ण रहा।


 

ओथेलो: विलियम शेक्सपियर द्वारा पांच कृत्यों में त्रासदी, 1603-04 में लिखी गई और 1622 में एक लेखकीय पांडुलिपि की प्रतिलेख से क्वार्टो संस्करण में प्रकाशित हुई। नाटक तब गति पकड़ता है जब वेनिस की सेवा में एक वीर अश्वेत जनरल ओथेलो, इआगो को नहीं बल्कि कैसियो को अपना मुख्य लेफ्टिनेंट नियुक्त करता है। ओथेलो की सफलता से ईर्ष्यालु और कैसियो से ईर्ष्या करते हुए, इयागो ने ओथेलो की पत्नी डेसडेमोना और कैसियो को प्रेम संबंध में झूठा फंसाकर ओथेलो के पतन की साजिश रची। एमिलिया, उसकी पत्नी की अनैच्छिक सहायता और साथी असंतुष्ट रोडेरिगो की स्वेच्छा से मदद से, इयागो अपनी योजना को अंजाम देता है।

 डेसडेमोना के रूमाल का उपयोग करते हुए और एमिलिया को मिला जब ओथेलो ने इसे अनजाने में गिरा दिया था, इयागो ने ओथेलो को समझाया कि डेसडेमोना ने कैसियो को प्रेम चिन्ह के रूप में रूमाल दिया है। इयागो ओथेलो को अपने और कैसियो के बीच की बातचीत को सुनने के लिए भी प्रेरित करता है जो वास्तव में कैसियो की मालकिन बियांका के बारे में है, लेकिन ओथेलो को यह विश्वास दिलाने के लिए प्रेरित किया जाता है कि कैसियो डेसडेमोना के प्रति आकर्षित है।


ये पतले "सबूत" इस बात की पुष्टि करते हैं कि ओथेलो इस बात पर विश्वास करने के लिए काफी इच्छुक है - कि, एक वृद्ध काले आदमी के रूप में, वह अब अपनी युवा सफेद वेनिस पत्नी के लिए आकर्षक नहीं है। ईर्ष्या से अभिभूत होकर, ओथेलो ने डेसडेमोना को मार डाला। जब उसे बहुत देर से एमिलिया से पता चलता है कि उसकी पत्नी निर्दोष है, तो वह एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किए जाने के लिए कहता है जिसने "बुद्धिमानी से नहीं बल्कि बहुत अच्छे से प्यार किया" और खुद को मार डाला।

द पूअर थिएटर कंपनी की स्थापना मार्च, 2024 में हुई थी। शहर में एक नया उद्यम, टीपीटीसी प्रदर्शन की परिवर्तनकारी शक्ति को समर्पित एक जीवंत समूह है। जेरज़ी मैरियन ग्रोटोव्स्की के अग्रणी काम से प्रेरित होकर, यह कंपनी थिएटर के सार पर प्रकाश डालती है, उनकी दृष्टि एकीकरण की खोज में निहित है, हमारे मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करती है, हमारी कलात्मक खोज और प्रामाणिकता के प्रति प्रतिबद्धता को आकार देती है।

दुर्गेश कुमार, हिमांशु राज तलरेजा और टीम द्वारा स्थापित, द पुअर थिएटर कंपनी नाटकीय परिदृश्य में नवीनता और जुनून की एक किरण के रूप में उभरी है।

शनिवार, 4 मई 2024

शाह साहब की दूरबीन

 

हास्य-व्यंग्य

हमारे आदरणीय गृहमंत्री आदरणीय अमित शाह जी दूरबीन के शौकीन है। उसका बखूबी इस्तेमाल करते हैं। अपने बंगले की छत पर जाकर देश के विभिन्न राज्यों की तरफ दूरबीन घुमा-घुमाकर स्थितियों का जायजा लेते रहते हैं। लेकिन पता नहीं उन्होंने किस कंपनी की दूरबीन खरीद रखी है कि उसमें दूर तो दूर सामने की चीज भी नज़र नहीं आती। अभी उनकी दूरबीन से देश के किसी चुनाव क्षेत्र में कांग्रेस या इंडिया गठबंधन नहीं दिखाई दे रहा है। चारों तरफ भाजपा का पताका लहराता दिख रहा है। 400 पार की जीत दिखाई दे रही है।

दो-तीन साल पहले बहुत खोजने पर भी उनकी दूरबीन बहुत खोजने के बाद भी उत्तर प्रदेश में किसी माफिया या बाहुबली को नहीं दिखा पा रही थी। उनका कहना था कि लड़कियां देर रात को गहनों से लदी स्कूटी पर बिना किसी डर-भय के कहीं भी निकल सकती हैं। विधि व्यवस्था इतनी चाक चौबंद है।

सवाल है कि अगर उत्तर प्रदेश में माफिया या बाहुबली नहीं दिख रहे थे तो अतीक अहमद और अशरफ अहमद कौन थे जिनकी पुलिस सुरक्षा घेरे में अस्पताल ले जाते समय गोली मारकर हत्या कर दी गई। तो फिर मुख्तार अंसारी कौन थे जिनकी जेल में जहर देकर हत्या कर देने का आरोप लगा। तो फिर जौनपुर वाले धनंजय सिंह कौन हैं जिनके जमानत पर जेल से बाहर आने से भाजपा में बेचैनी हैं। तो फिर अफजाल अहमद कौन हैं जिनके चुनाव लड़ने पर अदालत से रोक लगने की आशंका है। तो फिर ब्रजेश सिंह कौन हैं जो भाजपा में हैं और जिन्हें पूर्वांचल का सबसे बड़ा डॉन कहा जाता है। जिनकी मुख्तार अंसारी के साथ लंबे समय से गैंगवार की चर्चा गरम रही है। शाह साहब की दूरबीन में यह तमाम लोग क्यों नज़र नहीं आ रहे थे। आखिर किस ब्रांड की दूरबीन शाह साहब के पास है।

अगर चुनाव में कांग्रेस और विपक्षी दल शाह साहब की दूरबीन के रेंज में नहीं आ रहे हैं तो हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री को एक दिन में तीन-तीन रोड शो और जनसभाएं क्यों करनी पड़ रही हैं। इतना झूठ क्यों बोलना पड़ रहा है। स्वयं शाह साहब देर रात तक बैठकें कर राजनीतिक दांव-पेंच तैयार करने में क्यों लगे हुए हैं। जब सारे मतदाता उनकी पार्टी को एकतरफा वोट दे ही रहे हैं तो परेशानी किस बात की। आराम से चादर तानकर सो जाना चाहिए और अगले शपथ ग्रहण की तैयारी में लग जाना चाहिए।

शाह साहब बखूबी जानते हैं कि उनकी दूरबीन सच नहीं दिखा रही है। वह वही दिखा रही है जो वे देखना चाहते हैं। जिसे देखने के लिए किसी दूरबीन या चश्मे की जरूरत नहीं है। वह दृश्य जो उनके मन के अंदर से उङरते हैं। अगर दूरबीन जो दिखा रही है वह सच नहीं है तो इसका मतलब है कि या तो दूरबीन गड़बड़ है या फिर उनकी आंखों में दोष है। ऐसे दूरबीन को कूड़ेदान में फेंक देना चाहिए। झोला भर-भरकर चंदा मिला है फिर पार्टी क्या अपने चाणक्य को एक बढ़िया दूरबीन नहीं दिला सकती।

-देवेंद्र गौतम

गुरुवार, 2 मई 2024

पंजाबी फिल्म मियां बीबी राजी तो क्या करेंगे भाजी का मुहूरत

मुंबई। मुंबई के फ्यूचर स्टूडियो में पंजाबी फिल्म मियां बीबी राजी तो की करेंगे भाजी का मुहूर्त धूमधाम से किया गया। यह एक कॉमेडी फिल्म है। और इस फिल्म में मुख्य भूमिका मशहूर गायक और राजनीतिज्ञ हंसराज हंस के बेटे युवराज हंस निभा रहे हैं। फिल्म के प्रोड्यूसर अनिल मेहता और निर्देशक हैरी मेहता है। अभिनेत्री शहनाज है।






फिल्म के निर्देशक हैरी मेहता ने बताया कि जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है इस फिल्म में मनोरंजन का पूरा ध्यान रखा गया है। यह कॉमेडी से भरी हुई है। प्रत्येक सीन को बेहतर बनाने के लिए मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं। फिलहाल गाने की शूटिंग चल रही है। 


फिल्म के प्रोड्यूसर अनिल मेहता ने कहा कि मानसिक तनाव के इस दौर में लोगों को हंसना हंसाना बहुत जरूरी है। इसलिए विशुद्ध रूप से एक कॉमेडी फिल्म बनाने का निर्णय लिया है। दर्शकों को स्वस्थ मनोरंजन करने के लिए खास तौर पर ध्यान दिया गया है। फिल्म की शूटिंग शुरू हो गई है, पूरी टीम समय पर फिल्म को कंप्लीट करने के लिए व्यवस्थित तरीके से अपने काम को अंजाम दे रही है। यह खुशी की बात है कि हंसराज हंस के बेटे युवराज हंस इस फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वह अपने पिता की तरह ही एक प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। 



युवराज हंस ने कहा कि इस फिल्म में काम करने के दौरान उन्हें बहुत कुछ सीखने और समझने का भी मौका मिल रहा है। टीम के तमाम लोग काफी सहयोग कर रहे हैं। इस फिल्म में मेरी भूमिका भी कुछ इस तरह की है कि उसे निभाने में मुझे काफी मजा आ रहा है। निश्चित तौर पर दर्शक इस फिल्म को काफी पसंद करेंगे।


अभिनेत्री शहनाज ने बताया कि उनके लिए आप खुशी की बात है कि इस फिल्म में युवराज हंस के साथ काम कर रहे हैं। फिर मैं उनकी भूमिका भी काफी रोचक है।

फिल्म में पंजाब की संस्कृति और पंजाबी मानसिकता खुलकर के नजर आएगी।

बुधवार, 1 मई 2024

हास्य-व्यंग्यः ऑपरेशन कमल का प्रीपेड मोड लॉंच

 सूरत और इंदौर की परिघटना गर्मागर्म बहस का विषय बना हुआ है। यह सिर्फ एक प्रयोग है। आनेवाले समय में यह व्यापक रूप ले सकता है। 2014 के बाद ऑपरेशन कमल काफी चर्चा में रहा है। इसके तहत दूसरे दलों के विधायकों को खरीद लिया जाता है और सरकार बना ली जाती है। बिकाऊ लिधायक को उसकी मुंहमांगी कीमत मिल जाती है और खरीदार दल को सत्ता। यह कोई पहली बार नहीं हुआ है और सिर्फ भाजपा ने नहीं किया है। पहले भी यह काम होता रहा है। इसीलिए तो दल-बदल कानून बनाने की जरूरत पड़ी थी। भाजपा ने इसमें सिर्फ इतना बदलाव किया कि विधायकों का बाजार भाव बढ़ा दिया। पहले जहां कुछ लाख में या मंत्रीपद के आश्वासन पर खरीद बिक्री हो जाती है वहां अब मामला करोड़ों में जा पहुंचा है। इसके अलावा भ्रष्टाचार के मामलों से राहत और मनचाहा मंत्रालय बोनस में।

कई वर्षों तक ऑपरेशन का यह मोड सफलतापूर्वक चलता रहा। कई राज्यों मे इसी ऑपरेशन के जरिए पार्टियां तोड़ी गईं, सरकार बनी गईं। लेकिन दिल्ली और झारखंड में यह ऑपरेशन फेल हो गया। कई कोशिशें हुईं लेकिन नतीजा सिफर रहा। ऐसे में दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सबक सिखा दिया गया।

लेकिन अब ऑपरेशन को फुलप्रूफ रूप देना जरूरी हो गया। चुनाव के बाद विधायकों की खरीद ऑपरेशन कमल का पोस्ट पेड मोड था। लिहाजा सूरत में इसका प्रीपेड मोड लांच किया गया। इसके तहत चुनाव मैदान में मौजूद सभी उम्मीदवारों के साथ मतदान के पहले ही डील कर ली जाती है और एकतरफा जीत हासिल कर ली जाती है। सूरत के बाद इंदौर में भी इस प्रयोग को सफलतापूर्वक दुहराया गया।

फिलहाल इस प्रीपेड स्कीम को लेकर कई राजनीतिक दलों ने तूफान मचा रखा है। हालांकि इस तकनीक पर किसी दल का एकाधिकार नहीं है। किसी ने पेटेंट थोड़ी करा रखा है। गांठ में दम है तो कोई भी दल इसे अपना सकता है। सत्ता में आ गए तो गांठ को दमदार बनाने के कई रास्ते भी दिखाए गए हैं। सत्ता की राजनीति में यह प्रीपेड मोड आने वाले समय लोकप्रिय होगा। इसकी गारंटी है।

-देवेंद्र गौतम  

आज ही के दिन हुआ था मद्रास बम कांड

 रौशनलाल मेहरा बलिदान दिवस

1 मई 1933 का दिन था। मद्रास के रायपुरम समुद्र तट एक जोरदार धमाका हुआ और देखते-देखते पूरा शहर धुएं के बादलों से भर गया। ब्रिटिश अधिकारियों में खलबली मच गई। जब पुलिस दल विस्फोट की आवाज़ के दिशा में भागता हा पहुंचा तो वहां गंभीर रूप से घायल एक क्रांतिकारी नौजवान मिला। बम की चपेट में आकर उसका एक हाथ उड़ चुका था और वह बुरी तरह झुलस चुका था। जाहिर था कि वही बम लेकर आया था और उसी के हाथ से छूटकर बम विस्फोट कर गया था। पुलिस उन्हें अस्पताल ले गई। उनसे बहुत पूछताछ की लेकिन उन्होंने कोई जानकारी नहीं दी। वे तीन घंटे तक जीवित रहे फिर दम तोड़ दिया।


स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति देने वाले उस क्रांतिवीर का नाम था रौशनलाल मेहरा। वे बम बनाने में दक्ष थे। एक विशेष क्रातिकारी अभियान के लिए उन्हें शक्तिशाली बम बनाने का जिम्मा दिया गया था। उन्होंने उपलब्ध सामग्री से बम बना लिया था और उस दिन समुद्र तट पर उसका परीक्षण करने गए थे। दुर्भाग्य से समुद्र तट पर उनका पांव फिसल गया और बम उनके हाथ से गिरकर विस्फोट कर गया। वे बम की चपेट में आ गए और उनका एक हाथ उड़ गया।

रौशनलाल मेहरा उस क्रांतिकारी दल में शामिल थे जिसने मद्रास और बंगाल के गवर्नरों का सफाया करने के लिए मद्रास में डेरा डाल रखा था। हजारा सिंह और सीताराम नामक टीम के सदस्यों के साथ वे 1932 में ही मद्रास पहुंच चुके थे और उन्होंने मध्य मद्रास के तंबू चट्टी स्ट्रीट में एक किराए का मकान लेकर अपना गुप्त ठिकाना बना रखा था।

इस ऑपरेशन की पृष्ठभूमि लाहौर जेल में तैयार हुई थी। उस समय लाहौर जेल में उत्तराखंड के विख्यात क्रांतिकारी इंद्र सिंह गढ़वाली और उनके मित्र शंभुनाथ आजाद बंद थे। एक दिन उन्होंने दो अंग्रेजी अखबारों में खबर पढ़ी जिसमें मद्रास के गवर्नर का एक भाषण छपा था। उस भाषण में गवर्नर ने शेखी बघारते हुए दावा किया था कि मद्रास में कोई क्रांतिकारी गतिविधि नहीं है और जबतक राज्य की कमान उनके हाथ में है कोई क्रांतिकारी गतिविधि नहीं पनप सकती। सिविल एंड मिलिट्री गजट में भी उनका यह भाषण छपा हुआ था। दोनों क्रांतिकारी दोस्तों ने उनके दावे को चुनौती के रूप में लिया और जेल से छूटने के बाद उन्होंने संगठन के साथियों से इसपर चर्चा की। चर्चा के बाद संगठन ने मद्रास और बंगाल के गवर्नरों की हत्या करने तथा मद्रास में क्रांति भड़काने की योजना बनाई। पंजाब के क्रांतिकारियों ने इसपर काम करना शुरू कर दिया।

इंद्र सिंह गढ़वाली और शंभुनाथ आजाद 1933 में रिहा हुए जबकि हजारा सिंह, सीतानाथ और रौशन लाल मेहरा को 1932 में ही मद्रास भेजा जा चुका था। जेल से छूटने के बाद इंद्र सिंह गढ़वाली उनसे आ मिले और उसी कार्यालय में रहने लगे। उन्होंने साधू का वेश बना लिया और प्रेम प्रकाश मुनि का छद्म नाम धारण कर लिया था। इसके तुरंत बाद खुशीराम मेहता, शंभुनाथ आजाद, नित्यानंद, हजारा सिंह उर्फ बंता सिंह आदि भी मद्रास पहुंच गए।

गवर्नरों के खिलाफ क्रांतिकारी कार्रवाई के लिए 29 अप्रैल का दिन तय किया गया था। उस दिन मद्रास में ग्रीष्मकालीन दरबार लगना था जिसमें मद्रास और बंगाल के गवर्नरों के साथ जनरल एडरसन को शामिल होना था। जनरल एडरसन को आयरलैंड से खासतौर पर भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने के लिए बुलाया गया था। ब्रिटिश सरकार के यह तीनों लोग क्रांतिकारियों की हिट लिस्ट में थे और 29 अप्रैल को तीनों के एक साथ सफाए का अवसर मिलने वाला था।

इस बीच लाहौर में रामविलास शर्मा के आवास से अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क के दो क्रांतिकारी गिरफ्तार किए गए। मद्रास अभियान के लिए धन उन्हीं के मार्फत आना था। उनके पास से सारी धनराशि जब्त कर ली गई और पुलिस प्रताड़ना से टूटकर वे मुखबिर बन गए। नतीजतन मद्रास अभियान में लगी टीम के लोग गंभीर आर्थिक संकट में आ गए। उन्हें 29 अप्रैल तक टिके रहना था और अभियान की तैयारी भी करनी थी। इसके लिए काफी पैसों की जरूरत थी। ऐसे में उनलोगों ने तय किया कि वे ऊटी बैंक को लूटकर धन का इंतजाम करेंगे और जो भी सामग्री उपलब्ध है उससे शक्तिशाली बम बनाएंगे। रौशन लाल मेहरा को लूटकांड से अलग रखा गया था और उन्हें बम बनाने के काम में ध्यान केंद्रित रखने को कहा गया था।

उस समय तक सरदार भगत सिंह की फांसी हो चुकी थी और चंद्रशेखर आजाद ब्रिटिश पुलिस के साथ मुठभेड़ में अपना बलिदान दे चुके थे। ब्रिटिश सरकार बौखलाई हुई थी और पूरे देश में क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी का अभियान चल रहा था।

28 अप्रैल 1933 को उनकी टीम ने ऊटी बैंक पर धावा बोला और उसके सभी अधिकारियों, कर्मचारियों को बंधक बना लिया। इसके बाद स्ट्रांग रूम से नोट समेटकर बाहर खड़ी कार में डालने लगे। बच्चूलाल को बैंक के गेट पर निगरानी के लिए तैनात किया गया था। बाकी लोग अंदर लूटकांड को अंजाम देने में लगे थे। दो लोग टैक्सी में बैठे थे। इसी बीच दो सिपाही बच्चूलाल के पास आकर पूछताछ करने लगे। उन्होंने खतरे की सीटी बजा दी। उस समय तक 70 हजार रुपये टैक्सी में डाले जा चुके थे। क्रांतिकारी टीम उतनी ही राशि लेकर टैक्सी से उड़न-छू हो गई। पुलिस नें उनका पीछा किया। वे भेष बदल-बदलकर पुलिस को चकमा देते रहे। जाहिर तौर पर वे 29 अप्रैल के हमले के कार्यक्रम को अंजाम देने की स्थिति में नहीं रहे।

इस बीच 30 अप्रैल 1933 को टीम के दो सदस्य खुशीराम मेहता और नित्यानंद ब्रिटिश पुलिस की गिरफ्त में आ गए। पुलिस ने नित्यानंद को अमानवीय यातनाएं देकर पूछताछ की। वे पुलिस की यातना से टूट गए और सारी योजनाओं का भंडाफोड़ कर दिया। यहां तक कि ग्रीष्मकालीन दरबार में गवर्नरों और जनरल पर क्रांतिकारी हमले की योजना के बारे में भी बता दिया। क्रांतिकारियों के गुप्त ठिकाने का पता भी बता दिया। ब्रिटिश पुलिस बैंक लूट के आरोपियों की तलाश में जुट गई। इसी बीच बम विस्फोट की घटना हुई जिसमें रौशनलाल मेहरा शहीद हो गए। 

बौखलाई पुलिस ने नित्यानंद से मिली जानकारी के आधार पर 4 मई को तंबू चट्टी स्ट्रीट स्थित उनके ठिकाने को घेर लिया। इंद्र सिंह गढ़वाली ने जब पुलिस की घेराबंदी देखी तो सबसे पहले संगठन से संबंधित सभी दस्तावेज़ जला डाले और अपने साथियों के साथ मकान की छत पर जाकर मोर्चा ले लिया। पांच घंटे तक उनके बीच गोलियां चलती रहीं। इस मुठभेड़ में गोविंदलाल बहल शहीद हो गए। बाद में जब गोलियां खत्म हो गईं तो इंद्र सिंह गढ़वाली और शंभूनाथ आजाद समेत तीन लोग गिरफ्तार कर लिए गए।

हालांकि ग्रीष्मकालीन दरबार पर हमले का क्रांतिकारी अभियान पूरा नहीं हो पाया लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इसे मद्रास बमकांड और ऊटी बैंक लूटकांड के रूप में याद किया जाता है। बमकांड के अकेले किरदार रौशनलाल मेहरा थे।   

 

मंगलवार, 26 मार्च 2024

बांग्लादेशी मॉडल की ओर बढ़ता देश

 हाल में बांग्लादेश का चुनाव एकदम नए तरीके से हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के नेतृत्व वाली मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी सहित 15 दलों ने चुनाव का बहिष्कार कर दिया। मैदान में सिर्फ शेख हसीना के नेतृत्व वाली सत्ताधारी पार्टी अवामी लीग और उसके सहयोगी दल रहे। उसका मुकाबला निर्दलीय प्रत्याशियों से हुआ। उसमें भी बहुत से प्रत्याशी अवामी लीग के ही टिकटससे वंचित कार्यकर्ता थे। नतीजतन 300 सीटों वाली लोकसभा में से सत्ताधारी दल को 222 सीटों पर जीत मिली अर्थात तीन चौथाई बहुमत। इसे चुनाव कहने की जगह जनता की जबरिया सहमति कहा जा सकता है क्योंकि उसके सामने कोई विकल्प था ही नहीं। हालांकि इसका मकसद कट्टरपंथियों और आतंवाद के पोषकों को सत्ता से बाहर रखना था।

इधर भारत में चुनाव की घोषणा से पूर्व मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के सारे अकाउंट फ्रिज कर दिए गए हैं। दो मुख्यमंत्रियों सहित कई विपक्षी नेता बिना किसी सबूत के आरोपी करार देकर जेलों में बंद किए जा चुके हैं। एक-एक कर सभी मुख्य विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के कयास लगाए जा रहे हैं। जांच एजेंसियां ताबड़तोड़ छापेमारी कर रही हैं। इस बीच इलेक्टोरल बांड का खुलासा होने के बाद सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ भ्रष्टाचार के बहुत सारे मामलों का दस्तावेज़ी प्रमाण सामने आ चुका है। लेकिन उन मामलो पर जांच एजेंसियां मौन हैं। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है लेकिन चुनाव के पहले क्या आदेश पारित होंगे कहना कठिन है।

ऐसे में प्रतीत होता है कि कहीं भारत में भी बांग्लादेश की तर्ज पर चुनाव कराने की तैयारी तो नहीं चल रही है? अर्थात सत्ताधारी दल खाली मैदान में बल्लेबाजी करती हुई जीत की ट्राफी आराम से उठा ले जाए। हालांकि भारत के विपक्षी दलों ने चुनाव का बहिष्कार करने जैसा कोई आत्मघाती निर्णय नहीं लिया है। वे जेल में रहकर भी चुनाव लड़ने को तैयार हैं। हालांकि उन्हें एक-एक पैसे को मोहताज बनाकर ऐसी स्थिति बनाने का प्रयासचल रहा है जिसमें वे चुनाव लड़ने की स्थिति में ही नहीं आ सकें।

तो क्या सत्तारूढ़ भाजपा भारत में लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म करना चाहती है? जवाब है हां। इसलिए नहीं कि उसे सत्ता का बहुत ज्यादा लोभ है। ऐसा इसलिए कि वह भारत को हिंदूराष्ट्र बनाने के एजेंडे पर काम कर रही है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में धर्म आधारित राष्ट्र की स्थापना नहीं हो सकती। भारतीय संविधान के लागू रहते तो यह असंभव है। हिंदूराष्ट्र का गठन तानाशाही या राजशाही की व्यवस्था में ही संभव है। इसके लिए मौजूदा संविधान को निरस्त कर नया संविधान बनाने की जरूरत पड़ेगी। नई संविधान सभा का गठन करना होगा। नया संविधान बनेगा तभी यह संभव है। इसके लिए तीन चौथाई बहुमत और लोकतंत्र की विचारधारा को पूरी बेदर्दी से कुचल देने की जरूरत पड़ेगी। इसीलिए एक तरफ नैतिक, अनैतिक तरीके से अकूत धन इकट्ठा किया जा रहा है दूसरी तरफ देश को विदेशी कर्ज में आकंठ डुबोया जा रहा है। ताकि जब अपने एजेंडे की व्यवस्था लागू हो जाएगी तो जमा किए हुए धन से देश को विदेशी कर्ज से मुक्ति दिला दी जाए और तब जनता का ध्यान रखने की भी कोशिश होगी।

अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल में इसके लिए अनुकूल स्थिति नहीं थी। वह गठबंधन की बैसाखियों पर टिकी हुई सरकार थी। नरेंद्र मोदी का कार्यकाल इसके लिए सर्वथा अनुकूल है क्योंकि सरकार के पास प्रचंड बहुमत है और विपक्ष कमजोर है। सरकार विपक्षी दलों को पंगु बना देने की ताकत रखती है। भारत में एकतरफा चुनाव कराने का मकसद धार्मिक कट्टरता की जड़ों को फैलाना और मजबूत करना है।

चुनाव में विपक्ष सत्ता के हथकंडों के सामने मजबूती से खड़ा रह पाएगा या नहीं कहना कठिन है। अब देश की जनता को ही तय करना होगा कि वह लोकशाही में रहना चाहती है या राजशाही में।

-देवेंद्र गौतम

रविवार, 24 मार्च 2024

आजाद हिंद फौज का असली संस्थापक कोई और था!

 आमतौर पर आजाद हिंद फौज के सेनानायक के रूप में नेताजी सुभाष चंद्र बोस और इसके संस्थापक के रूप में रासबिहारी बोस का नाम लिया जाता है। इसके बाद प्रथम संस्थापक के रूप में कैप्टन मोहन सिंह का जिक्र भी आता है लेकिन इस फौज के निर्माण का विचार एक असैनिक क्रांतिकारी नेता और एक जापानी इंटेलिजेंस अधिकारी के मन में आया था। शुरुआत उन्होंने की थी लेकिन इसका श्रेय और लोगों ने लूटा। वास्तविक संस्थापकों के नाम नेपथ्य में डाल दिए गए। ऐसा दावा Sikhnet.com नामक एक वेबसाइट में प्रकाशित एक लेख में किया गया। इसके मुताबिक 1945 में जब देश में स्वतंत्रता संग्राम अपने निर्णायक दौर पर में पहुंच चुका था और दुनिया दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका के अंतिम दंश को झेल रही थी उसी समय से आजाद हिंद फौज अर्थात भारतीय राष्ट्रीय सेना के संस्थापक को लेकर विवाद चल रहा है। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1945/46 में नई दिल्ली में आजाद हिंद फौज में शामिल कुछ सैन्य अधिकारियों के खिलाफ कोर्ट मार्शल के मामले चल रहे थे। उनमें ज्ञानी प्रीतम सिंह ढिल्लो का नाम नहीं था क्योंकि वे ब्रिटिश भारतीय सेना के फौजी नहीं थे। जबकि आज़ाद हिंद फ़ौज के विचार के पीछे असली दिमाग उन्हीं का था।

ज्ञानी प्रीतम सिंह ढिल्लो के नाम का पंजाबी और अंग्रेजी दोनों में प्रकाशित शुरुआती किताबों में उल्लेख किया गया है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, कुछ निहित स्वार्थों के कारण, उनका नाम लगभग गायब कर दिया गया है। आज भी, सिख लेखक इस मुद्दे को भूल जाते हैं और कैप्टन मोहन सिंह को संस्थापक घोषित करते हैं।

सिख वेबसाइट में प्रकाशित लेख के लेखक का नाम नहीं है लेकि उन्होंने लिखा है कि 2005 तक उन्होंने ज्ञानी जी का छिटपुट उल्लेख पढ़ा था लेकिन पहली बार 1949 में विधाता सिंह टीर की लिखी पंजाबी भाषा की एक पुरानी पुस्तक में ज्ञानी प्रीतम सिंह के बारे में एक बहुत विस्तृत विवरण मिला, जहां आईएनए को समर्पित एक पूरा अध्याय था। यह किताब उन्हें उनके पैतृक गांव मोगा में एक परिवार के पास मिली थी। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आईएनए का विचार ज्ञानी प्रीतम सिंह के मन में उत्पन्न हुआ था, जिन्होंने जापानी शाही सेना के एक खुफिया अधिकारी से मुलाकात की थी और इस विचार को सामने रखा था।

हालांकि, पिछले कुछ वर्षों के अंजर किताबों और इतिहास में उनका नाम लगभग मिटा दिया गया है।  केवल दो नामों का बार-बार उल्लेख किया गया है, कैप्टन मोहन सिंह और सुभाष बोस जो एक बंगाली भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ता थे और जर्मनी में रहते थे। वे बर्लिन स्थित यूरोपीय भारतीय स्वतंत्रता लीग के प्रमुख थे। इससे पहले वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की युवा शाखा में शामिल थे और अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में शामिल होने के बाद 1940 में भारत से जर्मनी भाग गए थे।

2014 में लेखक जब हरमंदर साहिब के गुरुद्वारे में देर रात तक बैठा था  तभी एक युवा लड़का उनके दो कप चाय लेकर आया और उनके पास आकर बैठ गयाइस आकस्मिक मुलाकात के दौरान जब उसे पता चला कि लेख के लेखक मलेशिया से हैं, तो वे बहुत उत्साहित हुए और बताया कि उनके बाबा ज्ञानी प्रीतम सिंह जापानी समय में मलाया में थे। वे आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल थे। उस आकस्मिक मुलाकात से दोनों पक्षों में बहुत सारी जानकारी और जिज्ञासा सामने आई। अधिकांश व्यक्तिगत जानकारी और तस्वीरें उस युवक लखविंदर सिंह ढिल्लों से मिलीं। उन्होंने डायरियां हासिल करने का वादा किया है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे अब अमृतसर के प्रेस कार्यालय में राम सिंह मजीठिया के पास हैं। उसने उन्हें लाने का वादा किया है।

ज्ञानी प्रीतम सिंह जी का जन्म 18 नवंबर, 1010 को ग्राम नागोके सरली, जिला लायलपुर (वर्तमान में पाकिस्तान में) हुआ था। उनके पिता सरदार माया सिंह और माता माता फ़तेह कौर थीं। उस समय की संस्कृति के मुताबिक प्रीतम सिंह की शादी काफी कम उम्र में बीबी करतार कौर से हो गई। उनके दो बच्चे थे. एक बेटा पृथ्वीपाल सिंह और एक बेटी गुरशरण कौर।

उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई लायलपुर में की और फिर लाहौर से ज्ञानी बनकर निकले। इसके बाद वह लायलपुर कृषि कॉलेज में शामिल हो गए, लेकिन लाहौर के शहीद सिख मिशनरी कॉलेज में शामिल होने के लिए उन्होंने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी। 1938 में उनकी पत्नी का निधन हो गया।

मिशनरी और क्रांतिकारी के रूप में उनका काम उन्हें बंगाल ले गया। वहां रहते हुए वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और गदर पार्टी के साथ सक्रिय रूप से शामिल हो गए। उन्होंने 1915 के असफल विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिससे उन्होंने बंगाल लांसर्स रेजिमेंट में हलचल पैदा कर दी थी। अधिकारियों ने उसकी तलाश शुरू कर दी। वह 1919 में बर्मा से होते हुए बैंकॉक भाग गए, जहां भारत के अन्य हिस्सों से आए कई भारतीय क्रांतिकारी रह रहे थे।

एक बार बैंकॉक में, वह स्थानीय सिख समुदाय के साथ घुलमिल गए और अपने मिशनरी काम के साथ गदर पार्टी का संदेश फैलाना शुरू कर दिया।

फिर उनकी मुलाकात खुफिया अनुभाग के प्रमुख मेजर फुजिवारा से हुई, जिन्होंने जापान द्वारा युद्ध की घोषणा से पहले ही 4 दिसंबर 1941 को बैंकॉक में जापानियों के साथ सहयोग का समझौता किया था। मेजर फुजिवारा के साथ काम करते हुए ज्ञानी प्रीतम सिंह का विचार था कि पकड़े गए भारतीय सैनिकों को भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए भारतीय राष्ट्रीय सेना में शामिल होने के लिए कहा जाए। ये योजनाएं युद्ध शुरू होने से बहुत पहले बैंकॉक स्थित क्रांतिकारियों के एक समूह के बीच शुरू की गई थीं।

इस प्रकार, कैप्टन मोहन सिंह आईएनए के संस्थापक नहीं हैं, बल्कि आईएनए के केवल पहले ऑपरेशनल कमांडर थेउन्होंने ज्ञानी जी और मेजर फुजिवारा के आग्रह पर पद स्वीकार किया। आईएनए के पीछे मेजर इवाइची फुजिमुरा और ज्ञानी प्रीतम सिंह ढिल्लों का दिमाग था।

1941 में  14 वीं पंजाब रेजिमेंट के कैप्टन मोहन सिंह ऑपरेशन मेटाडोर में थाई सीमा पर तैनात थे, जब जापानियों ने हमला किया। 14 वां पंजाब रेजिमेंट बाकी सहयोगी सेनाओं के साथ पीछे हट गया। कैप्टन मोहन ने खुद को जितरा के जंगलों में एक भटकते हुए व्यक्ति के रूप में पाया। वहां उन्होंने स्थानीय लोगों के माध्यम से जापानियों के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए संपर्क किया, जब उन्हें पता चला कि जापानी लोगों द्वारा पंजाबी में कुछ पर्चे गिराए गए थे, जिसमें ब्रिटिश भारतीय सैनिकों से आत्मसमर्पण करने और भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए आईएनए में शामिल होने का आह्वान किया गया था।

जित्रा, केदाह में, उनकी मुलाकात ज्ञानी प्रीतम सिंह और मेजर इवाइची फुजीवारा से एक कार में हुई, जिसमें जापानी ध्वज के साथ एक भारतीय तिरंगा भी था। उन्होंने कैप्टन मोहन को आईएनए में शामिल होने के लिए राजी किया। वह ब्रिटिश भारतीय सेना में सबसे वरिष्ठ भारतीय अधिकारियों में से एक थे। वे आजाद हिंद फौज का परिचालन कमान लेने के लिए सहमत हो गए।

अगले दिन वे अलोर स्टार गुरुद्वाआरा में एकत्र हुए, जहां आईएनए और भारतीय स्वतंत्रता की सफलता के लिए पहली अरदास की गई। इस प्रकार, अल्पज्ञात इतिहास का एक बहुत मजबूत तत्व अलोर स्टार गुरुदुआरा साहिब से जुड़ा हुआ है, जिसे स्थानीय समुदाय द्वारा न तो महसूस किया गया है और न ही स्मरण किया गया है या स्वीकार किया गया है, कि इसके मैदान में एक महान घटना हुई थी।

बाद में आजाद हिंद फौज के संस्थापकों और संचालकों में रासबिहासी बोस, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और कैप्टन मोहन सिंह की चर्चा होती रही लेकिन ज्ञानी जी और फुजीवारा को चर्चा के बाहर कर दिया गया। ज्ञानी प्रीतम सिंह की निजी डायरियां गायब कर दी गईं। यह डायरियां टोक्यो में एक हवाई दुर्घटना में ज्ञानी जी की मृत्यु के बाद उनके कब्जे में आ गई थीं। ज्ञानी जी ने 24 मार्च 1042 को एक सम्मेलन में हिस्सा लेने के बाद छह अन्य आईएनए अधिकारियों के साथ साइगॉन से टोक्यो के लिए उड़ान भरी थी। वह विमान हवाई अड्डे पर ही दुर्घटनाग्रस्त हो गई जिसमें ज्ञानी जी की मृत्यु हो गई। उनके दोनों बच्चों को एक अन्य आईएनए अधिकारी कर्नल निरंजन सिंह द्वारा सिंगापुर से भारत भेजा गया था। इसके बाद ज्ञानी जी की भूमिका कम कर दी गई। ज्ञानी जी का परिवार सच बोलने में सक्षम नहीं था। जैसे कैप्टन मोहन सिंह ने ज्ञानी प्रीतम सिंह की भूमिका छीन ली, वैसे ही कैप्टन मोहन सिंह के साथ भी हुआ, क्योंकि आईएनए का सारा श्रेय सुभाष चंद्र बोस के पास आ गया।

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान 11 जनवरी 1942 को कुआलालंपुर में ब्रिटिश भारतीय सेना के 3500 भारतीय सैनिक और 15 फरवरी 1942 को 85 हजार भारतीय सैनिक युद्धबंदी बनाए गे थे। ज्ञानी प्रीतम सिंह और फिजीवामा ने उसी समय कैप्टन मोहन सिंह की कमान में भारतीय युद्धबंदी सैनिकों को लेकर आजाद हिंद फौज का गठन करने का आह्वान किया। इसका मकसद ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सैन्य कार्रवाई कर भारत को आजाद कराना था। मोहन सिंह ने लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन सिंह गिल को चीफ ऑफ स्टाफ बनाया। उन्होंने लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में सिंगापुर के नीसन में अपना मुख्यालय स्थापित किया। जे.के. भोंसले को एडजुटेंट और क्वार्टर मास्टर जनरल और लेफ्टिनेंट कर्नल ए.सी. चटर्जी को चिकित्सा सेवाओं के निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया। हालांकि, आज़ाद हिंद फ़ौज की औपचारिक स्थापना 1 सितंबर 1942 को हुई थी, उस दिन तक 40,000 युद्धबंदियों ने इसमें शामिल होने की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर किए थे।

 

 

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