देवेंद्र गौतम
भाजपा ने पुलवामा और बालाकोट को चुनावी मुद्दा बनाकर बड़ी भूल कर दी।
यह कोई मुद्दा था ही नहीं। इतिहास बताता है कि सैन्य राष्ट्रवाद को हिटलर और
मुसोलिनी ने मुद्दा बनाया था। पहले विश्व युद्ध के बाद बर्साय संधि के जरिए
विक्षुब्ध राष्ट्रों को जिस तरह हाशिये पर ला खड़ा किया गया था उससे लोगों में
आक्रोश था जिसका लाभ हिटलर और मुसोलिनी को मिला था। लेकिन भारत में सैन्य
राष्ट्रवाद का राजनीतिक लाभ उठाने की स्थिति नहीं थी। यदि एयर स्ट्राइक के तुरंत
बाद चुनाव होते तो भाजपा को इसका कुछ लाभ मिल सकता था लेकिन दोनों के बीच के
अंतराल में बहुत से ऐसे तथ्य उजागर हुए जिन्होंने सैन्य राष्ट्रवाद की लहर कमजोर
कर दी। इन दोनों घटनाओं में एक पुलवामा मोदी सरकार की इंटेलिजेंस नाकामी का प्रतीक
था जिसपर सरकार को शर्मिंदगी प्रकट करनी चाहिए थी, लेकिन इस नाम पर वोट मांगे जाने
लगे। दूसरा बालाकोट वायुसेना के शौर्य का जिसपर देशवासी गौरवान्वित हो सकते थे
लेकिन उनके रोजमर्रे के जीवन से जुड़े दूसरे मुद्दे थे जिनपर सरकार की चर्चा ही
नहीं करना चाहती थी। जो चर्चा करता था उसे पाकिस्तान का एजेंट और देशद्रोही करार
दिया जाता था। चुनाव में मुख्य मुद्दा विकास, रोजगार, नोटबंदी, जीएसटी आदि थे
जिनपर सरकार चाहती तो अपने सृजित तर्कों और आंकड़ों के जरिए लोगों को एक हद तक
प्रभावित कर सकती थी। उनके भक्त और समर्थक तो थे ही। इन्हें हवा देने के लिए केंद्र
सरकार ने तरह-तरह की योजनाएं लाईं उनके लाभुकों को भाजपा के पक्ष में मतदान के लिए
प्रेरित भी कर सकती थी लेकिन उनका क्रियान्वयन जिस ढंग से किया गया उससे समाज के
हिस्से को तात्कालिक लाभ तो मिला लेकिन दूरगामी परेशानी बढ़ गई। सोशल मीडिया पर
भाजपा के कथित भक्तों ने गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल कर भाजपा का और भी नुकसान
किया। कुछ इसी तरह की भाषा का प्रयोग स्वयं पीएम मोदी और उनके कई मंत्री करते रहे।
राजीव गांधी पर टिप्पणी कर तो उन्होंने हद ही कर दी। भारत की जनता न तो यह भाषा
बोलती है, न पसंद करती है।
भाजपा ने भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर जैसी आतंकवाद की आरोपी को उम्मीदवार
बनाकर यह संकेत दे दिया कि वह भारत के हिंदूवाद को किस दिशा में ले जाना चाहती है।
तेज़बहादुर यादव का नामांकन रद्द कराने के लिए जिस तरह तंत्र का उपयोग किया गया
उसने मोदी सरकार के सैन्यवाद की असली तसवीर दिखा दी। यहां अखिलेश यादव की रणनीति
सफल हो गई। इस तरह की कार्रवाइयों के जरिए पीएम मोदी ने अपने पावों में खुद
कुल्हाड़ी मार ली। 2014 की बात और थी। उस समय लोग कांग्रेस से नाराज थे और मोदी को
एक उम्मीद के रूप में देख रहे थे। 2014 की जीत किसी करिश्मे की नहीं कांग्रेस से
नाराजगी की जीत थी। नकारात्मक वोटों से जीती थी भाजपा। जिसे नेरेंद्र मोदी ने अपना
करिश्मा समझ लिया और मनमाने तरीके से काम करने लगे। मोदी सरकार ने अच्छी योजनाएं
लीं लेकिन क्रियान्वयन बेढंगे तरीके से किया। यह चुनाव भी बेढंगे तरीके से ही लड़ा
जिसका नतीजा 23 मई को सामने आ जाएगा। क्या होगा, इसका आभास तो भाजपा नेताओं को भी
है।
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