देवेंद्र गौतम
विजय रथ का चक्का थमने के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का
बड़बोलापन थम गया है। परेशानी बढ़ गई है। उन्हें न सिर्फ गठबंधन के नाराज साथियों
को मनाने की जरूरत महसूस हो रही है बल्कि भाजपा के अंदरूनी विवादों से भी निपटने
की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधान
सभाओं के चुनाव इसी वर्ष होने हैं। इनका आम चुनावों पर गंभीर असर पड़ेगा। 2019 के
आम चुनावों में भी ज्यादा समय नहीं रह गया है। विपक्षी गठबंधन बड़ी चुनौती के रूप
में सामने है। गठबंधन के नाराज साथियों में सिवसेना के अधयक्ष उद्धव ठाकरे से उनके
मुंबई स्थित आवास पर मिले लेकिन शिवसेना के तेवर नरम पड़ते नहीं दिख रहे। अब वह
महाराष्ट्र में जूनियर पार्टनर की भूमिका में रहने को तैयार नहीं है। उसे 282
सदस्यीय विधान सभा में कम से कम 152 सीटें मिलेंगी तभी एनडीए गठबंधन में शामिल
रहेगी अन्यथा सभी सीटों पर अकेले लड़ेगी। सेना आलाकमान ने शाह को अपनी शर्तें
स्पष्ट तौर पर बता दी हैं। सेना चाहती है कि भाजपा केंद्र संभाले और महाराष्ट्र उसके
लिए छोड़ दे। बिहार में नीतीश कुमार तो पहले ही सीनियर पार्टनर के रूप में मौजूद
हैं। बिहार के भाजपा नेता सुशील मोदी उनका अग्रत्व पहले ही स्वीकार कर चुके हैं।
उधर राजस्थान की मुख्यमंत्री विजय राजे सिंधिया के साथ शाह का विवाद
पहले से ही चल रहा है। इस विवाद के कारण अप्रैल से ही भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष की
नियुक्ति रुकी हुई है। इसके कारण कार्यकर्ताओं में रोष व्याप्त है। उपचुनावों मे
राजस्थान की दो संसदीय और एक विधान सभा सीट हारने के बाद अगले विधान सभा चुनाव के
मद्दे-नज़र शाह राजस्थान के पार्टी ढांचे में फेरबदल करना चाहते थे। शाह ने पार्टी
के प्रदेश अध्यक्ष अशोक प्रणामी से इस्तीफा ले लिया लेकिन शाह के पसंदीदा उम्मीदवार
जोधपुर के सांसद एवं केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत पर वसुंधरा राजे सिंधिया
ने आपत्ति व्यक्त कर दी। कई बैठकों के बाद भी इसपर निर्णय नहीं हो सका। शाह अपनी
पसंद का प्रदेश अध्यक्ष चाहते हैं जबकि सिंधिया अपने प्रति समर्पित व्यक्ति को इस
पद पर बिठाना चाहती हैं। वसुंधरा के तेवर शाह की नाराजगी का सबब बन रहे हैं। वसुंधरा
का राजस्थान में अपना जनाधार है। उनकी उपेक्षा भाजपा को महंगी पड़ सकती है लेकिन
शाह का स्वेच्छाचारी स्वभाव समझौते की जगह टकराव को प्रेरित कर रहा है। यदि
कर्नाटक और उपचुनावों में भाजपा को मुंह की नहीं खानी पड़ती तो शाह के तेवर कुछ और
होते संभवतः वसुंधरा की छुट्टी कर दी गई होती। पिछले दिनों शाह ने जयपुर ग्रामीण लोकसभा
के कार्यकर्ताओं की बैठक दिल्ली में बुलाई। उन्हें जमकर चुनावी तैयारी करने को
कहा। सभा में कुछ लोगों ने सवाल उठाए कि यह बैठक दिल्ली में क्यों बुलाई गई। इसे
राजस्थान में ही किया जाना चाहिए था। इस बैठक में वसुंधरा राजे नहीं शामिल हुईं।
कार्यकर्ताओं में यह संदेश गया कि शाह और राजे के विवाद के कारण बैठक दिल्ली में
की गई। शाह ने बैठक में मोदी सरकार की उपलब्धियों का बखान किया और राजस्थान में
उनके विजय रथ को आगे बढ़ाने का आह्वान किया लेकिन वसुंधरा सरकार के कार्यों और
उपलब्धियों की कोई चर्चा नहीं की गई। जबकि विधानसभा चुनाव राज्य सकार के कार्यों
के आधार पर लड़े जाते हैं।
शाह ने साफ संकेत दिया कि राजस्थान का चुनाव वसुंधरा राजे सीएम रहेंगी
लेकिन चुनाव उनके नाम पर नहीं बल्कि मोदी के नाम पर लड़ा जाएगा। दरअसल वसुंधरा
राजे को मुख्यमंत्री पद से हटाने की पूरी तैयारी थी। पार्टी को डर था कि वसुंधरा
बगावत कर सकी हैं। लेकिन अब शाह ने संकेत दिया कि बदली परिस्थितियों में यह जोखिम नहीं
उठाया जाएगा वसुंधरा मुख्यमंत्री बनी रहेंगी। शाह के अहंकारी स्वभाव के कारण राजे
ही नहीं भाजपा के बहुत से नेता खार खाए हुए हैं। अब अपराजेय होने का भ्रम टूटने के
बाद सबको मनाने की कोशिश चल रही है। समें कितनी सफलता मिलती है और 2019 की लड़ाई
में भाजपा अपनी साख बचा पाती है अथवा नहीं यही देखना है।
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