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सोमवार, 6 मई 2019

क्या इसी भाषा और संस्कार को लेकर विश्वगुरु बनेगा भारत!



देवेंद्र गौतम

पीएम नरेंद्र मोदी एक ऐसे नेता हैं जिन्होंने चुनाव के समय बार-बार अपने पांव में खुद कुल्हाड़ी मारी। प्रज्ञा ठाकुर को चुनाव मैदान में उतारना, फौजी जवान तेज़ बहादुर का नामांकन रद्द करवाना, बनारस के साधु संतो के नामांकन को खारिज करवाना। चुनाव आचार संहिता की धज्जियां उड़ाना, पूर्व में सेना की कार्रवाइयों को वीडियो गेम बताना और शहीद प्रधानमंत्री राजीव गांध पर अपमानजनक टिप्पणी करना यह सब ऐसी गलतियां हैं जिनका खमियाजा उन्हें और उनकी पार्टी को भुगतना पड़ सकता है।
पीएम मोदी अभी जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं वह सभ्य लोगों की भाषा तो कत्तई नहीं हो सकती। पढ़ा लिखा आदमी तो दूर कोई अनपढ़ चायवाला भी इतनी उदंड भाषा नहीं बोलता। उनकी भाषा शुरू से कटाक्ष करने वाली रही है। लेकिन इतने निचले स्तर पर उतरकर कटाक्ष करना इतने बड़े और जिम्मेदार पर बैठे व्यक्ति को शोभा नहीं देता। ऐसी भाषा की देशवासियों पर क्या प्रतिक्रिया होती है कभी न इसे जानने की कोशिश की न इसकी परवाह की। वे स्वयं को चायवाला बोलते हैं। चायवाला भी अपने ग्राहकों से साथ इस तरह की बात नहीं करता। उनके साथ अदब से पेश आता है। यह जाहिल-जपाट और सड़क छाप लफंगों की भाषा देश के लोग पसंद नहीं करते। आश्चर्य होता है कि वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संगठक कैसे रहे। संघ का एक साधारण कार्यकर्ता भी इतनी शालीन भाषा बोलता है कि सैद्धांतिक विरोध रखने वाले भी उनसे प्रभावित हो जाते हैं। संघ जैसी संस्था में रहकर भी कोई संस्कार नहीं सीखे तो आश्चर्य होता है।
हालांकि राजनीति में गंदी भाषा और मूल्यहीनता की शुरुआत लालू यादव से मानी जाती है जो भूरा बाल साफ करो जैसे नारे लगाते थे। लेकिन लालू की भाषा किसी को कचोटती नहीं थी। लोग उनकी बातों का मज़ा लेते थे। उनका उद्देश्य किसी को अपमानित करना नहीं होता था बल्कि पिछड़ी जातियों को जागृत करना, उनके अंदर आत्मसम्मान की भावना भरना होता था। वे मसखरी कर लोगों को आकर्षित करने की कला जानते थे। आज भी वे देश के सबसे मुंहफट राजनेता माने जाते हैं। लेकिन उनकी भाषा कचोटती नहीं गुदगुदाती है। मायावती भी आक्रामक भाषण देती हैं लेकिन उन्होंने मनुवाद और ब्राह्मणवाद का विरोध किया किसी व्यक्ति अथवा जाति के लिए कभी अपमानजनक और चुभने वाली बातें नहीं की। अपने विरोधियों को देशद्रोही और पाकिस्तान परस्त घोषित करने और घटिया बातें करने की शुरुआत मोदी और शाह की जोड़ी ने की। वह भी सत्ता हासिल हो जाने के बाद। सत्ता पाते ही उनका अहंकार, बड़बोलापन सातवें आसमान पर पहुंच गया। भाजपा में और भी तो नेता हैं, उनकी भाषा और उनका आचरण तो मर्यादित है। वे विरोधियों को निशाना जरूर बनाते हैं लेकिन उनपर व्यक्तिगत हमला नहीं करते। राजनाथ सिंह हों, नितिन गडकरी हों या अन्य नेता। वे नपी तुली और तार्किक बातें करते हैं। सिर्फ मोदी और शाह के चहेते लोगों की ज़ुबान बेलगाम हो गई है। वे कब क्या बोल जाएंगे उन्हें खुद पता नहीं।
मोदी जी की भाषा ही नहीं काम करने का तरीका भी बेढंगा है। इसका ताज़ा उदाहरण संसदीय चुनाव में 75 पार के लोगों का टिकट काटने का तरीका है। वे वरिष्ठ नेता रहे हैं। भाजपा की नींव डालने वाले रहे हैं। अगर उनसे इस नीतिगत फैसले पर बात कर लेते और उन्हें इसपर सहमत कराकर उनका आशीर्वाद दिलाकर नए प्रत्याशी उतारते तो यह भारतीय परंपरा के मुताबिक होता। उनकी प्रतिष्ठा भी रह जाती और उनके समर्थकों में भी यह संदेश जाता कि उनके नेता को महत्व दिया गया। लेकिन इसकी जगह सीधे फरमान जारी कर दिया गया कि आपकी जगह फलां प्रत्याशी होंगे। कई नेताओं ने इस फरमान पर बगावत कर दी। कई बार रांची के सांसद रहे रामटहल चौधरी बागी उम्मीदवार के रूप में निर्दलीय मैदान में उतर गए और अब भाजपा के लिए इस जीती हुई सीट को गंवाने का खतरा है। गांधीनगर के मतदाता एलके आडवाणी जी के अपमान को लेकर नाराज हो गए और अब अमित शाह के लिए चुनाव जीतना संदिग्ध हो चला है। तकनीक का सहारा लेकर जीत भी गए तो नैतिक रूप से हार हो गई।


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