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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

मीडिया की भूमिका पर मंथन की जरूरत



रांची। पुलवामा हमले के बाद मीडिया की भूमिका पर मंथन की जरूरत है। इस दौरान प्रिंट मीडिया तो अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करता दिखा लेकिन उसकी अपनी सीमाएं हैं। वह पल-पल की खबर नहीं दे सकता। उसके डिजिटल संस्करणों ने जरूर अपनी सीमाओं का विस्तार किया। लेकिन भारत और पाकिस्तान के खबरिया चैनलों का कवरेज देखने के बाद यह महसूस हुआ कि अब टीवी मीडिया में खबरों के खिलाड़ियों की बहुतायत है और खबरों की समझ रखने वाले पत्रकारों का घोर अभाव है। वे पूरी तरह दुर्लभ प्राणी बन चुके हैं। एंकरों में निर्भीकता तो दुःसाहस के स्तर तक नज़र आई लेकिन निष्पक्षता का भारी अकाल दिखा। सनसनी फैलाने, टीआरपी बटोरने और लोगों को चौंकाने के चक्कर में झूठी तसवीरें, फर्जी वीडियो और प्रायोजित खबरें भी धड़ल्ले से प्रसारित की गईं। पाकिस्तानी चैनलों के एंकरों का तो तथ्यों में कुछ लेना-देना ही नहीं रह गया था। वे सेना और आइएसआई का भोंपू नजर आ रहे थे। भारतीय चैनलों के अधिकांश एंकर भी सेना के शौर्य की जगह राजनीतिक नेतृत्व के गुणगान में लगे थे। कुछ तो पार्टी प्रवक्ताओं की भाषा बोल रहे थे। कुछेक पत्रकार ही पत्रकारिता की गरिमा को बरकरार रखे हुए दिखे। पल-पल बदलती स्थितियों की जानकारी लेने को देश का हर नागरिक बेचैन रहा। तत्काल सूचनाओं का प्रसार करने का दायित्व इलेक्ट्रोनिक और डिजिटल मीडिया का था। लेकिन वे नारेबाजी का मंच बन गए थे। सोशल मीडिया तो खैर गाली गलौच और भड़ास निकालने का एक अनियंत्रित मंच बन ही चुका है। वह प्रतिक्रियाओं और भावुकता का प्लेटफार्म है। उसपर गंभीर लोग गंभीरता से बात रखते अवश्य हैं लेकिन उनकी संख्या कम है लिहाजा सोशल मीडिया के प्रभाव को स्वीकार करने के बावजूद उसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।

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