चालीस-पचास साल पहले भारतीय करेंसी की प्राथमिक इकाई एक नया पैसा होती थी और रुपये तक पहुंचते-पहुंचते विभिन्न मूल्यों के सिक्कों की एक लंबी श्रृंखला होती थी। हर सिक्के की क्रयशक्ति थी। बाजार में प्रतिष्ठा थी। धीरे-धीरे महंगाई बढ़ती गई और रुपये का पूरा कुनबा चलन से बाहर हो गया। हाल तक अठन्नी दिखाई देती थी। अब वह भी चलन से बाहर है। अब रुपये के पूरे कुनबे को संग्रहालयों में ही देखा जा सकता है। चिंता की बात यह है कि करेंसी के चलन से बाहर होने का सिलसिला अभी भी जारी है। यह कहां जाकर रुकेगा कहना कठिन है। संभव है कुछ दशकों के बाद करेंसी की गिनती सौ अथवा पांच सौ के नोट से करनी पड़े। करेंसी के स्खलन का यह क्रम कैसे रुके इसपर न किसी सरकार का ध्यान है न किसी अर्थशास्त्री का और न ही रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का। क्या इसपर विचार करने की जरूरत नहीं है? इसपर चिंता नहीं की जानी चाहिए।
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गुरुवार, 31 जनवरी 2019
कहां गया एक रुपये का पूरा कुनबा!
चालीस-पचास साल पहले भारतीय करेंसी की प्राथमिक इकाई एक नया पैसा होती थी और रुपये तक पहुंचते-पहुंचते विभिन्न मूल्यों के सिक्कों की एक लंबी श्रृंखला होती थी। हर सिक्के की क्रयशक्ति थी। बाजार में प्रतिष्ठा थी। धीरे-धीरे महंगाई बढ़ती गई और रुपये का पूरा कुनबा चलन से बाहर हो गया। हाल तक अठन्नी दिखाई देती थी। अब वह भी चलन से बाहर है। अब रुपये के पूरे कुनबे को संग्रहालयों में ही देखा जा सकता है। चिंता की बात यह है कि करेंसी के चलन से बाहर होने का सिलसिला अभी भी जारी है। यह कहां जाकर रुकेगा कहना कठिन है। संभव है कुछ दशकों के बाद करेंसी की गिनती सौ अथवा पांच सौ के नोट से करनी पड़े। करेंसी के स्खलन का यह क्रम कैसे रुके इसपर न किसी सरकार का ध्यान है न किसी अर्थशास्त्री का और न ही रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का। क्या इसपर विचार करने की जरूरत नहीं है? इसपर चिंता नहीं की जानी चाहिए।
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