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शनिवार, 4 मई 2019

रांची में परचम लहरा सकती है कांग्रेस, बशर्ते....



भाजपा के मतों के विभाजन और प्रत्याशी की लोकप्रियता का मिल सकता है लाभ
सुबोधकांत सहाय

संजय सेठ

रामटहल चौधरी
देवेंद्र गौतम
रांची लोकसक्षा क्षेत्र में चुनाव की तैयारी पूरी हो चुकी है। चुनाव आयोग भी चौकस है और प्रशासन भी। सुरक्षाकर्मी पर्याप्त संख्या में मौजूद है। मतदान 6 मई को है। चुनाव प्रचार का दौर थम चुका है। स्टार प्रचारकों के हेलिकॉप्टरों की उड़ान रुक चुकी है। फिलहाल प्रत्याशियों और उनके समर्थकों का डोर टू डोर संपर्क जारी है। भाजपा के कार्यकर्ता प्रत्याशी संजय सेठ पीएम मोदी के नाम पर वोट मांग रहे हैं। भाजपा कार्यकर्ता खासतौर पर केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं के लाभुकों से संपर्क कर रहे हैं। संजय सेठ खादी ग्रामोद्योग के अध्यक्ष रहे हैं। संसदीय राजनीति में नए हैं। सार्वजनिक जीवन में कोई खास भूमिका नहीं रही है। उन्हें मोदी के नाम, सरकार के काम और अमित शाह के चुनावी इंतजाम पर भरोसा है। राज्य में भाजपा की सरकार है। इसका लाभ मिलने की उम्मीद है। लेकिन भाजपा के निवर्तमान भाजपा सांसद रामटहल चौधरी के बागी उम्मीदवार के रूप में खड़े होने के कारण भाजपा के पारंपरिक मतों में भारी विभाजन हो रहा है। उनकी बगावत भाजपा को महंगी पड़ सकती है। इस सीट पर त्रिकोणीय मुकाबला है जिसमें कांग्रेस के दिग्गज नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय को भाजपा के मतों के विभाजन का लाभ मिलता दिख रहा है।
रांची झारखंड की राजधानी होने के कारण महत्वपूर्ण है। इस अनारक्षित सीट पर कांग्रेस और भाजपा ने अब तक सबसे अधिक बार चुनाव जीतने का रिकार्ड बनाया है। आजादी के बाद 1951 में हुए लोकसभा के पहले चुनाव में कांग्रेस के अब्दुल इब्राहिम सांसद निर्वाचित हुए थे। इसके बाद पीके घोष, शिव प्रसाद साहु और सुबोधकांत सहाय ने यहां से कांग्रेस का परचम लहराया। 1957 में यहां से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मीनू मसानी चुनाव जीते थे। 1977 में भारतीय लोकदल से रवींद्र वर्मा चुनाव जीते। लेकिन वे फिर दुबारा लौटकर नहीं आए। सुबोधकांत सहाय रांची से पहली बार 1989 में चुनाव जीते थे। उस समय वे जनता दल के प्रत्याशी थे। मीनू मसानी और रवींद्र वर्मा रांची के निवासी नहीं थे। वे बाहर से आकर चुनाव जीते थे। 
1962 में कांग्रेस से पीके घोष पहली बार जीते। उन्होंने जीत की हैट्रिक बनाई। 1962 के बाद 1967 और 1971 का चुनाव भी जीते। 1977 में जब आपातकाल को लेकर पूरे देश में इंदिरा विरोधी लहर चल रही थी ऐसे में लोकदल ने रांची के लिए एकदम नए बाहरी उम्मीदवार रवींद्र वर्मा को मैदान में उतारा और इंदिरा विरोधी लहर में उन्हें जीत हासिल हो गई। 
इसके बाद 1980 और 1984 के चुनाव में लोहरदगा के मूल निवासी शिव प्रसाद साहू कांग्रेस के टिकट पर  लगातार दो बार सांसद निर्वाचित हुए। 1989 में वे जनता दल के उम्मीदवार सुबोधकांत सहाय से हार गए। 1991 के बाद रांची में भारतीय जनता पार्टी का दबदबा कायम हो गया। रामटहल चौधरी 1991 से लगातार चुनाव जीतते आए। 1991, 1996, 1998 और 1999 का चुनाव रामटहल चौधरी जीते। लेकिन 2004 और 2009 के चुनाव में वे सुबोधकांत सहाय के हाथों हार गए। 
2014 लोकसभा चुनाव में फिर रामटहल चौधरी ने सुबोधकांत सहाय को पराजित कर दिया। समय लोग कांग्रेस से नाराज थे और नरेंद्र मोदी एक नई उम्मीद जगाने में सफल रहे थे। लेकिन रामटहल चौधरी सिर्फ मोदी के नाम पर नहीं अपने व्यक्तिगत प्रभाव से जीते थे। उन्हें 448729 वोट मिले थे जबकि सुबोधकांत सहाय विपरीत स्थितियों में भी 249420 वोट हासिल करने में सफल रहे थे। आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो ने भी पहली बार 2014 में लोकसभा चुनाव लड़ा था लेकिन वे 142560 वोट लाकर तीसरे स्थान पर रहे थे। तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर खड़े बंधु तिर्की को मात्र 46 हजार वोट मिले थे।
2019 के चुनाव में हालांकि विभिन्न दलों और निर्दलीय को मिलाकर 20 उम्मीदवार मैदान में हैं। लेकन मुख्य संघर्ष निर्दलीय मैदान में उतरे निवर्तमान सांसद रामटहल चौधरी, कांग्रेस के पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय और भाजपा के संजय सेठ के बीच ही है। शेष 17 प्रत्याशी चुनाव प्रचार के दौरान भी कहीं दिखाई नहीं पड़े। सिर्फ प्रत्याशियों की सूची में उनका नाम देखा गया।
रामटहल चौधरी का टिकट जिस तरह बिना उनसे कोई परामर्श किए काट दिया गया इससे वे बेहद नाराज हैं। उनके समर्थक भी अपने नेता के अपमान पर भाजपा से नाराज हैं। उनकी नाराजगी भाजपा के लिए नुकसानदेह है। हालांकि आजसू के एनडीए में होने का उसे लाभ भी मिल सकता है। दूसरी तरफ दो जिलों में फैले रांची लोकसभा क्षेत्र के छह विधानसभा क्षेत्रों में से सिल्ली पर एनडीए के सहयोगी दल आजसू का और शेष पांच विधानसभा क्षेत्र रांची, कांके, सिल्ली, खिजरी व हटिया पर भाजपा का कब्जा है। भाजपा ने बूथ स्तर पर जबर्दस्त तैयारी की है। कोई हवा या लहर भाजपा के पक्ष में नहीं है। मोदी का करिश्मा भी फीका हो चला है। उसे योजनाओं के लाभुकों का भरोसा है।
ज़मीनी सच्चाई यह है कि कांग्रेसी प्रत्याशी सुबोधकांत सहाय 2014 का चुनाव हारने के बाद भी रांची संसदीय क्षेत्र के लोगों के बीच लगातार सक्रिय रहे। लोगों को सुख-दुःख के हर अवसर पर उनके साथ खड़े रहे। सांप्रदायिक समरसता बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जनता के बुनियादी सवालों और समस्याओं को लेकर लगातार संघर्षरत रहे। उन्हें इसका सीधा लाभ मिलता दिख रहा है। भाजपा के मतों के विभाजन का भी लाभ उन्हें मिल रहा है। रांची के त्रिकोणीय मुकाबले में वे फिलहाल सबसे आगे दिख रहे हैं। उनका मुकाबला रामटहल चौधरी से है या संजय सेठ से यह भी अभी स्पष्ट नहीं है। यदि उनके कार्यकर्ता समर्थकों का मतदान कराने, सरकारी तंत्र की निष्पक्षता सुनिश्चित करने और स्ट्रांग रूम में ईवीएम की निगरानी के प्रति सतर्क रहे तो सुबोधकांत सहाय इस सीट पर जीत का परचम लहरा सकते हैं।

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