804 अखबार डीएवीपी की विज्ञापन सूची के बाहर
नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2016-17 के दौरान आरएनआई और
डीएवीपी के नियमों में बदलाव के जरिए छोटे-मंझोले अखबारों को बंदी के कगार पर
पहुंचा दिया साथ ही इलेक्ट्रोनिक और डिजिटल मीडिया के अनुकूलन की पूरी व्यवस्था कर
ली। यह कोई नई बात नहीं है। केंद्र में जब भी पूर्ण बहुमत की सरकार बनती है तो वह
स्वयं को अपराजेय समझने लगती है। उसका पहला हमला मीडिया पर होता है। 1980 में जब
इंदिरा गांधी की सरकार शर्मनाक हार के बाद पूरे दम-खम के साथ वापस लौटी तो वे जनता
सरकार के ढाई वर्षों के दौरान अखबारों की भूमिका से बेहद खार खाई हुई थीं। उन्होंने
अखबारों को सबक सिखाने के लिए कई उपाय किए। एक तो न्यूजप्रिंट का मामला अधर में
लटकाये रखा। दूसरे टीवी के अधिकतम विस्तार की नीति अपनाई ताकि प्रिंट मीडिया का
महत्व घटे। उन्होंने यह कोशिश नहीं की कि अखबारी कागज देश में बन कर सस्ता मिले या
विदेशों से आयातित न्यूजप्रिंट का दाम कम हो। गरीब और मध्यमवर्गीय जनता को अखबार
और पत्र पत्रिकाएं सस्ते दामों पर मिलें। उन्होंने ऐसी नीति अपनाई कि अखबारों और
पत्र-पत्रिकाओं के दाम बेहिसाब बढ़ते चले गए। उधर जनहित के नाम पर कलर टीवी और
इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों पर रियायतें दी गईं जो पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में था।
नरेंद्र मोदी सरकार मीडिया से खार तो नहीं खाई हुई थी लेकिन
संभवतः वे किसी किस्म की आलोचना सुनने के आदी नहीं थे। या मीडिया उनके एजेंडे में
बाधा डाल सकता था। उन्होंने ऐसी सख्ती बरती कि छोटे-मंझोले अखबारों का संचालन
मुश्किल हो गया। इससे आमजन की आवाज बुलंद करने वाली पत्र-पत्रिकाएं बंद होने लगीं उनसे
जुड़े लाखों लोग बेरोजगार हो गए। बड़े मीडिया घरानों से सरकार को परेशानी नहीं थी
क्योंकि वे पूरी तरह कारपोरेट के चंगुल में आ चुके थे। जनता के मुद्दों को दरकिनार
कर वे रागदरबारी गाने लगे थे। सरकार को उन छोटे-मंझोले अखबारों से परेशानी थी जो
अपने सरकारी तंत्र के अंदर की गड़बड़ियों का पर्दाफाश करते थे। जरूर उनके बीच ऐसे
तत्व भी थे जो अखबारों पत्रिकाओं की आड़ में सिर्फ और सिर्फ सरकारी विज्ञापन हासिल
करने की जुगत में लगे रहते थे। जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक कुछ लेना-देना नहीं
रहता था। जो ब्लैकमेलिंग और उगाही के धंधे में भी लिप्त थे। लेकिन घुन का सफाया
करने के नाम पर गेहूं के गोदाम में जहर का छिड़काव कर दिया गया।
मोदी सरकार के नए नियमों के बाद
आरएनआई और डीएवीपी काफी सख्त हो गए। समाचार पत्र के संचालन में जरा भी नियमों की
अवहेलना होने पर आरएनआई समाचार पत्र के टाईटल पर रोक लगाने लगा। उधर, डीएवीपी विज्ञापन देने पर प्रतिबंध लगाने को तत्पर हुआ। देश के इतिहास में
पहली बार लगभग 269,556 समाचार पत्रों के टाइटल निरस्त कर दिए
गए और 804 अखबारों को डीएवीपी ने अपनी विज्ञापन सूची से बाहर
निकाल दिया गया। आरएनआई ने समाचार पत्रों के टाइटल की समीक्षा में समाचार पत्रों
की विसंगतियां तलाश कर प्रथम चरण में प्रिवेंशन ऑफ प्रापर यूज एक्ट 1950 के तहत देश के 269,556 समाचार पत्रों के टाइटल
निरस्त कर दिए। इसमें सबसे ज्यादा महाराष्ट्र के 59703, और
फिर उत्तर प्रदेश के 36822 पत्र-पत्रिकाएं शामिल थीं। इसके
अलावा बिहार के 4796, उत्तराखंड के 1860, गुजरात के 11970, हरियाणा के 5613, हिमाचल प्रदेश के 1055, छत्तीसगढ़ के 2249, झारखंड के 478, कर्नाटक के 23931, केरल के 15754, गोआ के 655, मध्य
प्रदेश के 21371, मणिपुर के 790, मेघालय
के 173, मिजोरम के 872, नागालैंड के 49,
उड़ीसा के 7649, पंजाब के 7457, चंडीगढ़ के 1560, राजस्थान के 12591, सिक्किम के 108, तमिलनाडु के 16001, त्रिपुरा के 230, पश्चिम बंगाल के 16579, अरुणाचल प्रदेश के 52, असम के 1854, लक्षद्वीप के 6, दिल्ली के 3170 और पुडुचेरी के 523 पत्र-पत्रिकाओं के टाइटिल रद्द
किए गए।
अब पांच विधानसभा और लोकसभा के चुनाव सामने हैं। भारी
संख्या में जनता की आवाज़ उठाने वाले छोटे-मंझोले अखबार बंद हो चुके हैं लेकिन
उनकी बंदी से बेरोजगार हुए पत्रकार किसी न किसी माध्यम से अपनी कलम चलाते रहे हैं।
कुछ अखबार उल्टी सांस लेते हुए भी जीवित बच गए हैं। मोदी की अपराजेय होने की
खुशफहमी कई मौकों पर भंग हो चुकी है। दामन पर कई दाग भी लग चुके हैं। जिन्हें जनता
देख रही है। अपने मीडिया विरोधी चेहरे को लेकर यह सरकार चुनाव में कौन सा चमत्कार
दिखा पाती है, यही देखना है।
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