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मंगलवार, 25 जून 2019

मुर्गे की सभी प्रजातियों से आगे निकल गया झाबुआ का कड़कनाथ



समरेंद्र कुमार
हाल के वर्षों में मध्य प्रदेश के इलाकों में पाया जाने वाला जंगली प्रजाति का मुर्गा कड़कनाथ अपने औषधीय गुणों के कारण बेहद लोकप्रिय हुआ है। इस प्रजाति का मुर्गा अन्य प्रजातियों के मुर्गों से बेहतर होता है। इसमें प्रोटीन की मात्रा अधिक और फैट की मात्रा न के बराबर पायी जाती है। इसमें विटामिन-बी-1, बी-2, बी-6, बी-12, सी, , नियासिन, केल्शियम, फास्फोरस और हीमोग्लोबिन भरपूर होता है। यह स्वास्थ्य के लिए अन्य मुर्गों की तुलना में ज्यादा लाभकारी है। इसका रक्त, हड्डियां और सम्पूर्ण शरीर काला होता है। यह दुनिया में केवल मध्यप्रदेश के झाबुआ और अलीराजपुर में पाया जाता है।
किसी जमाने में इसका शिकार किया जाता था। लेकिन अब इसका बाजाप्ता पालन किया जाने लगा है। झाबुआ, अलीराजपुर और देवास जिले में कड़कनाथ मुर्गा-पालन की 21 सहकारी समितियों का पंजीयन हुआ है। इनमें 430 सदस्य हैं। चार समितियों द्वारा व्यवसाय शुरू कर दिया गया है। एप के माध्यम से कोई भी कड़कनाथ मुर्गा खरीदने के लिए ऑनलाइन डिमांड कर सकता है। भविष्य में ऑनलाइन आर्डर के साथ होम डिलीवरी की भी सुविधा उपलब्ध करवाई जाएगी।

हाल ही में कड़कनाथ नस्ल पर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के बीच विवाद की स्थिति बनी थी और दोनों राज्यों ने इस नस्ल पर अपना दावा जताया था। दोनों राज्यों ने इस काले पंख वाले चिकन किस्म के लिए 'जीआई टैग' के लिए चेन्नई में भौगोलिक संकेतक पंजीयन कार्यालय के साथ आवेदन किया था।

मध्यप्रदेश पशुपालन विभाग के अतिरिक्त उप निदेशक डॉ भगवान मंगहानी ने कहा था कि प्रदेश को काला पक्षी के लिए जीआई टैग प्राप्त होने की संभावना है। उन्होंने कहा कि ग्राम विकास ट्रस्ट ऑफ झाबुआ ने 2012 में कड़कनाथ प्रजनन में शामिल आदिवासी परिवारों की ओर से जीआई टैग के लिए आवेदन किया था। डॉ. मंगनानी के अनुसार राज्य द्वारा संचालित हैचरी हर साल कड़कनाथ विभिन्न प्रकार के 2.5 लाख मुर्गियों का उत्पादन करती है।

मध्यप्रदेश ने झाबुआ में 1978 में कड़कनाथ के पालन के लिए पहला पोल्ट्री स्थापित किया था, लेकिन छत्तीसगढ़ ने अपने उत्पादन में समय की एक अवधि में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया था।

एक निजी कंपनी ग्लोबल बिजनेस इनक्यूबेटर प्राइवेट लिमिटेड (जीबीआईपीएल) के अध्यक्ष श्रीनिवास गोगिनेनी के मुताबिक छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में घरेलू वातावरण में एक अनोखे तरीके से पक्षी का पालन किया गया था। अंततः इसे झाबुआ जिले की नस्ल मान लिया गया और मध्य प्रदेश का दावा स्वीकार कर लिया गया।



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