रघुवर दास सरकार जल शक्ति अभियान के तहत जल संचय पर जोर दे रही है। यह जरूरी भी है। पूरी दुनिया में भूमिगत जल का स्तर लगातार नीचे की
ओर खिसक रहा है। कुएं, तालाब या तो अतिक्रमित हो चुके हैं या सूख चले हैं। अधिकांश चापाकलों से पानी नहीं निकल रहा
है। जलाशयों का जल भंडार घटता जा रहा है। नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं। पूरे देश में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। अब एकमात्र उम्मीद आकाशीय जल पर टिकी है। उसे नदियों के रास्ते समुद्र तक जाने से रोकना होगा। मौजूदा संकट का बड़ा कारण है विकास की अंधी दौड़ में जल संचय के
पारंपरिक माध्यमों का अतिक्रमण, अनदेखी और नए माध्यमों के विकास के प्रति
उदासीनता। हमारे पूर्वज जल के महत्व को जानते थे और उसके संचय के प्रति जागरुक थे।
झारखंड के इलाकों में जल संचय की अनोखी तकनीक थी। पठारी भूमि होने के
कारण यहां भूमिगत जल के स्तर में असमानता रही है। कहीं 10-15 फुट पर पानी मिल जाता है कहीं हजार फुट की गहराई में भी पानी नहीं है। ज्यादातर नदियां पहाड़ी होने के कारण
बहुत गहरी नहीं हैं। इसीलिए यहां सूखे की मार थोड़े-थोड़े अंतराल पर झेलनी पड़ती है। ऐसे
संकटकाल के लिए झारखंड की आदिम जनजातियों ने नदियों के किनारे अनंत गहराई वाले
छोटे-छोटे जलाशय बना रखे थे जिन्हें दह कहा जाता था। कामिनदह, राजदह, रानीदह
भंडारदह जैसे सैकड़ों दह आज भी मौजूद हैं। इनका जल कभी सूखता नहीं था।
हर दह को लेकर कुछ किंवदंतियां प्रचलित हैं। सभी के साथ एक सामान्य सी
कथा प्रचलित रही है कि एक पाहन यानी पुजारी था जो अपनी बगलों में एक तरफ बकरा और
दूसरी तरफ कुल्हाड़ी दबाकर दह के अंदर उतरता था और पानी के अंदर किसी गुफा के अंदर
प्रवेश करथा था। गुफा के अंदर मौजूद देवस्थल में बकरे की बलि देता था और वापस लौट
आता था। एक बार वह बलि देकर वापस लौटा तो उसे याद या कि कुल्हाड़ी अंदर ही छूट गई
है। वह दुबारा दह में उतरा और गुफा के अंदर गया तो देखा कि कई देवी-देवता बकरे का
मांस खा रहे हैं। उसे दुबारा आया देख वे क्रोधित हो गए और कहा कि अब यहां कभी आने
की जरूरत नहीं है। हर दह के साथ इससे मिलती-जुलती कथा जुड़ी है।
ऐसी मान्यता है कि इनकी गहराई सात खाट की रस्सियों के बराबर थी। जाहिर
है कि यह जल संचय की आदिम प्रणाली थी। सूखा पड़ने पर दहों का जल मनुष्य के काम आता
था। अब इन दहों की गहराई मनुष्य के कमर भर भी शेष नहीं बची है। इनके अंदर गाद भर गया
है। आधुनिक समाज को इन दहों की उपयोगिता की जानकारी ही नहीं है। अन्यथा इनकी सफाई
कराई जाती और संकटकाल में इनमें संचित जल का उपयोग किया जाता। लेकिन अफसोस की बात
है कि मानवशास्त्रियों और पुरातत्वविदों का भी इनकी ओर ध्यान नहीं गया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें