देवेंद्र गौतम
कल तक जो सड़क साफ सुथरी और सीधी नजर आ रही थी। अब खुरदुरी और
टेढ़ी-मेढ़ी दिखने लगी है।मोदी और शाह की जोड़ी के खिलाफ सहयोगी दलों के तेवर कड़े
होते जा रहे हैं। उन्हें अपने अहंकार और बड़बोलेपन का खमियाजा भुगतना पड़ रहा है।
बाजपेयी सरकार में जो दल एनडीए में शामिल थे वे गठबंधन में वापस आने का संकेत दे
रहे हैं बशर्ते शाह और मोदी नेतृत्वकारी भूमिका से बाहर रहें। वे इस जोड़ी की जगह राजनाथ
सिंह को नेता मानने को तैयार हैं। टीडीपी से लेकर तृणमूल कांग्रेस तक ने खुलकर यह
बात कही है। शिवसेना के तेवर पहले से ही कड़े हैं। वह महाराष्ट्र में अपनी शर्तों
पर गठबंधन चाहती है अन्यथा अकेले लड़ने का एलान कर चुकी है। अन्य सहयोगी दलों ने
भी असहयोग का रवैया अपना रखा है।
मोदी सरकार के चार साल से लेकर मोदी अगेन पीएम जैसे कई अभियान चले जा
रहे हैं। जिन उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटा जा रहा है उनसे आम जनता को कोई सीधा लाभ
नहीं हुआ है। खासतौर पर मध्यम वर्ग के लिए यह चार साल एक दुःस्वप्न की तरह व्यतीत
हुए हैं। उसके अंदर गहरा क्षोभ और आक्रोश व्याप्त है। मोदी शासन से वे ऊब चुके हैं
और उससे छुटकारा चाहते हैं लेकिन कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा है। जिस विपक्षी
एकता के नाम पर मोदीराज खत्म करने की ताल ठोकी जा रही है, पूर्व के चुनावों में
जनता उसका हस्र देख चुकी है। जबतक मोदी की कद काठी का कोई कद्दावर नेता विपक्षी
गठबंधन की नेतृत्वकारी भूमिका में नहीं आता मोदी सरकार की वापसी की संभावना खत्म
नहीं होती। फिर भी जो माहौल बना हुआ है उसमें इतना तय है कि 2014 जैसा प्रचंड
बहुमत हासिल नहीं होगा। अगर एनडीए की सरकार बनती भी है तो उसे गठबंधन के सहयोगी
दलों की मदद लेनी होगी। विपक्ष सत्ता पर काबिज नहीं भी हो पाया तो लोकसभा में
मजबूत उपस्थिति दर्ज करेगा। शाह और मोदी की स्वेच्छाचारिता के लिए कोई गुंजाइश
शायद ही बचे।
दरअसल नरेंद्र मोदी को लोगों ने जिस उम्मीद के साथ सत्ता सौंपी थी वे
उसपर खरे नहीं उतरे। उन्हें ऐसी नीतियां बनानी चाहिए थीं जिनका लाभ उनके कार्यकाल
में मिले। लेकिन वे बार-बार अपने कार्यों की तुलना कांग्रेस के 60 साल के कार्यकाल
से करते रहे और दीर्घकालीन लाभ का दिलासा देते रहे। लोगों को यह समझ में नहीं आया
कि अपने निर्णयों से चौंकाने की प्रवृत्ति वाले नेता ने कभी अचानक लाभ पहुंचाकर
जनता को चौंकाने की जगह दीर्घकालीन योजनाओं पर क्यों काम करते रहे। लोगों को उनकी
विफलताएं नज़र आईं लेकिन उन्होंने अपनी विफलताओं को कभी स्वीकार नहीं किया।
तरह-तरह के कुतर्क गढ़कर गलत को सही बताने के प्रयास में लगे रहे।
दरअसल 2014 में प्रचंड बहुमत में आने के बाद मोदी सरकार को सहयोगी
दलों के समर्थन की कोई दरकार नहीं थी। फिर भी उन्हें अपने साथ जोड़े रखा। लेकिन उपयोगिता
न होने के कारण उन्हें गठबंधन में दोयम दर्जे का स्थान दिया। उनके साथ शालीन
व्यवहार करने और सम्मान देने की जरूरत नहीं समझी। उनके शासन वाले राज्यों के प्रति
भी सौतेला व्यवहार किया। बल्कि विपक्षी दलों की सरकारों से भी बुरा व्यवहार किया। सत्ता
के अहंकार में वे व्यवहारकुशलता को पूरी तरह भूल बैटे और सहयोगी की जगह मालिकों की
तरह पेश आने लगे। अमित शाह तो सहयोगी दलों के वरिष्ठ नेताओं को मिलने का समय भी
मुश्किल से देते थे। उनका अहंकार मोदी का भी यही रवैया था। लगातार चुनावी जीत ने
उनके अंदर अपराजेय होने का बोध भर दिया था। उनके पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। सहयोगी
दलों को वे अपने रहमो-करम पर जीने वाले कृतदास समझते थे। संघीय अवधारणा को ताक पर
रखकर सहयोग की जगह परेशानियां पैदा करते रहे।
अब जबकि तीन राज्यों के विधानसभा और लोकसभा चुनाव सर पर हैं और
विपक्षी गठबंधन ने उनके विजय रथ के पहिये रोक दिए हैं तो उनकी तंद्रा टूटी है। अब
वे चार साल की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए पूरी टीम को लगा चुके हैं।
अमित शाह सहयोगियों को मनाने और जन संपर्क साधने के अभियान में निकल पड़े हैं।
लेकिन प्रतीत होता है कि अब काफी विलंब हो चुका है। उन्हें अपने अभियान में कितनी
सफलता मिल सकेगी कहना कठिन है। चिड़िया खेत चुग चुकी है। अब पछताने से कुछ होने वाला
नहीं है। राजनीति में अक्खड़पन और दादागिरी नहीं चलती। समय हमेशा एक सा नहीं रहता।
उतार-चढ़ाव आना प्रकृति का नियम रहा है। इस बात को यह जोड़ी भूल चुकी थी। अभी तक
उन्हें यह गुमान नहीं था कि विपक्ष में मोदी के मुकाबले खड़ा होने वाला कोई चेहरा
सामने आ सकेगा। वे राहुल को पप्पू और विपक्ष के अन्य नेताओं को मूर्ख समझते आ रहे
थे। अब संघ के मुख्यालय में भाषण देने के बाद जबसे शिवसेना ने प्रणब मुखर्जी को
विपक्ष का पीएम पद का साझा उम्मीदवार बनाने की पेशकश की है, शाह के कान खड़े हो गए
हैं। हालांकि शिवसेना की बातों को राजनीतिक दल गंभीरता से नहीं लेते। उसके इस
प्रस्ताव पर भी विपक्षी दलों की कोई प्रतिक्रिया अभी तक सामने नहीं आई है। फिर भी प्रणब
मुखर्जी एक से नेता हैं जिनपर सभी विपक्षी दलों की सहमति बन सकती है और उनका
व्यक्तित्व मोदी से किसी मायने में कम नहीं है। अगर उन्हें मैदान में उतारा गया तो
चुनाव का पूरा समीकरण और परिदृश्य बदल जाएगा। अमित साह इस बात को समझ रहे हैं।
नरेंद्र मोदी फिलहाल अगले चुनावों पर कुछ भी बोलने से परहेज़ कर रहे हैं लेकिन
उनकी चिंताएं उनके चेहरे से परिलक्षित हो रही हैं। जो भी हो लेकिन 2019 का चुनाव
भाजपा के लिए तना आसान नहीं होगा जितना वह समझ रही थी।
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