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रविवार, 10 जून 2018

बाजारवाद के दौर में साहित्य


देवेंद्र गौतम
वैश्वीकरण के दबाव के कारण हिन्दी साहित्य गंभीर संकट से गुजर रहा है। विचार पर बाजार हावी हो रहा है। लेखक जन सरोकार की जगह बिकाउ साहित्य की जमीन तलाश रहे हैं और तमाम साहित्यिक संगठन निष्क्रिय पड़े हैं।
 बिहार की राजधानी पटना से 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित आरा भोजपुर जिले का मुख्यालय और एक छोटा सा कस्बानुमा शहर है। लेकिन सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियों के कारण इसे बिहार का इलाहाबाद कहा जाता रहा है। इस छोटे से शहर में 70 के दशक तक हिन्दी की चार और उर्दू की चार साहित्यिक संस्थाएं सक्रिय थीं। सबकी मासिक गोष्ठियां नियमित रूप से होती थीं। यानी हर शनिवार-रविवार को कोई न कोई रचना अथवा समीक्षा गोष्ठी होती ही थी। इनमें नए रचनाकार भी शामिल होते थे और जाने-माने साहित्यकार भी। इससे रचनाशीलता का एक माहौल बना रहता था। हिन्दी में प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच जैसे राष्ट्रीय संगठन और नवोदित रचनाकारों की स्थानीय स्तर पर गठित मित्र मंडली। उर्दू में हल्का-ए-अहबाब, दायरे-अदबिया, इदारा-ए-अदबे नौ और बज्मे-नूरी।
अब सिर्फ बज्मे-नूरी की ही माहनामा निशिस्त (गोष्ठी) नियमित रूप से होती है। कभी-कभार छठे-छमाही जनवादी लेखक संघ का कुछ आयोजन हो जाता है। बाकी सारी संस्थाएं निष्क्रिय हो चुकी हैं। वर्ष में एकाध साहित्यिक कार्यक्रम सरकारी सौजन्य से हो जाता है। साहित्यिक सक्रियता का वह जमाना जो नवयुवकों को साहित्य सृजन के लिए प्रेरित करता था, इतिहास के पन्नों में गुम हो चला है। नयी पीढ़ी को मार्गदर्शन देने वाले वरिष्ठ साहित्यकार भी या तो दुनिया से कूच कर चुके हैं या फिर अपनी खोल में जा छुपे हैं। व्यक्तिगत रचनाशीलता जरूर कायम है लेकिन सामुहिक सृजन का माहौल खत्म हो चला है।
यह सिर्फ आरा की नहीं हिन्दी पट्टी के अधिकांश शहरों की कहानी है। साहित्यिक संगठनों की राष्ट्रीय और राज्य कमेटियां तो अस्तित्व में हैं लेकिन अधिकांश जिलों में कोई इकाई शेष नहीं है। है भी तो निष्क्रिय पड़ी है। कोई मार्गदर्शन नहीं होने के कारण गंभीर साहित्य सृजन सीमित हो चला है और विभिन्न शहरों में फेसबुकिया और इंटरनेटी साहित्यकारों की एक जमात सामने आई है जो रातो-रात शोहरत और दौलत हासिल करने को लालायित दिखाई देती है। चेतन भगत जैसे लेखक उनके रोल मॉडल बन गए हैं। बिकाउ साहित्य का बोलबाला है। जन-सरोकारों का साहित्य अपेक्षाकृत कम लिखा जा रहा है।
निश्चित रूप से लोगों में पढऩे की जगह देखने की प्रवृति बढ़ी है। टीवी और इंटरनेट से जुड़ाव बढ़ा है लेकिन अभी भी बोले हुए शद्ब्रदों की जगह छपे हुए शद्ब्रदों का महत्व कायम है। लुगदी साहित्य की बिक्री में तो कोई कमी नहीं आई है।
दरअसल नब्बे के दशक में सोवियत संघ का विघटन और अमेरिका-परस्त बाजारवाद तथा ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया भारत में हिन्दी-उर्दू साहित्य के लिए जोरदार झटका साबित हुई है। बाजार के समक्ष विचारधारा के कमजोर पडऩे के कारण जमीनी स्तर पर निराशा व्याप्त हो गई। इसका सीधा असर साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों पर पड़ा। साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों का एक बड़ा हिस्सा उपभोकतावाद की सुनामी में बह गया। अचानक अधिकांश साहित्यिक संगठनों की सक्रियता पर विराम सा लग गया। अखिल भारतीय स्वरूप के तीनों प्रमुख साहित्यिक संगठन प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच जो अलग-अलग वामपंथी दलों और उनकी विचारधारा से प्रेरित थे, अस्तित्व का संकट झेलने लगे।
रचनाकारों का एक बड़ा हिस्सा इन संगठनों से जुड़ा हुआ था। हालांकि उस वक्त तक हिन्दी और उर्दू साहित्य में अन्य धाराएं भी मौजूद थीं। हिन्दी में उत्तर आधुनिकतावाद और उर्दू में मा-बादे-जदीदीयत का दौर शुरू हो चुका था। यह सात्र और फ्रैंज काफ्का की विचारधारा से प्रेरित आंदोलन थे। उर्दू में 60 के दशक में ही तरक्कीपसंद (प्रगतिशील)आंदोलन के समानांतर जदीद (आधुनिकतावादी) तहरीक (आंदोलन) को अमली-जामा पहनाया जाने लगा था। लेकिन यह आंदोलन कुछ बड़े नामों, उनके समर्थकों और कुछेक पत्रिकाओंं तक महदूद थे। इनका कोई सांगठनिक ढांचा मौजूद नहीं था। इनसे ज्यादातर उस वक्त की नई पीढ़ी जुड़ी थी। स्थापित रचनाकार नए सिरे से पहचान बनाने का जोखिम नहीं उठा सकते थे।  बदले परिवेश में कुछ रचनाकारों ने मौन साध लिया। कुछ लोग बाजारवाद को कोसने में व्यस्त हो गए और कुछ उसमें अपनी जगह बनाने में। कुछ सामाजिक सरोकारों से तौबा कर बिकाऊ साहित्य की रचना की जमीन तलाश करने लगे। इस बीच भारतीय समाज में भी पश्चिमी प्रभाव बढऩे लगा। सामाजिक परिवर्तनों ने गति पकड़ी और इसके साथ ही धीरे-धीरे साहित्य लेखन का चरित्र भी बदलने लगा। इस मौके पर साहित्यिक संगठनों ने विचारधारा के स्तर पर रणनीतिक बदलाव की जरूरत नहीं समझी। इसके कारण भी भगदड़ को रोका नहीं जा सका।
इस दौरान पूरी दुनिया में नए सामाजिक आंदोलनों का उभार आया। इस क्रम में स्त्रियों का आंदोलन, राष्ट्रीयताओं का आंदोलन, दलितों का आंदोलन और अन्य वंचित तबकों का आंदोलन जोर पकडऩे लगा। वाम संगठन अपनी वर्ग संघर्ष की पुरानी अवधारणा पर चलते रहे। उन्होंने अपने खोल से बाहर निकलकर इनके साथ सामंजस्य बिठाने की जगह इन्हें प्रतिक्रियावादी आंदोलन के खाते में डाल दिया। इसके कारण भी गतिरोध उत्पन्न हुआ। प्रासंगिकता संदिग्ध होने लगी। नए आंदोलनों के प्रति वाम संगठनों का रवैया फिर भी नकारात्मक बना रहा। जबकि भारत में जाति व्यवस्था की जकडऩ के कारण इस तरह के आंदोलनों की जमीन पहले से ही बनी हुई थी। इस स्थिति में दलितवाद, स्त्री-विमर्श और आदिवासी विमर्श का साहित्य मुख्यधारा में शामिल होने लगा और पूर्व की तमाम धाराएं हाशिए की ओर बढऩे लगीं। जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हिन्दी कवि मदन कश्यप कहते हैं, ‘सांगठनिक स्तर पर रणनीतिक बदलाव किए गए होते तो निष्क्रियता का यह माहौल नहीं बनता। बाजारवाद को कोसने की जगह उसका सामना करने की जरूरत थी, जिसमें हम पिछड़ गए।’
स्वतंत्रता संग्राम के दिनों से लेकर कई दशकों तक का हिन्दी और उर्दू का साहित्य वामपंथी धारा का साहित्य रहा है। हिन्दी में प्रगतिशील लेखक संघ और उर्दू में अंजुमन तरक्कीपसंद मुसन्निफ इस धारा के प्रथम संगठन थे। प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना 1935 में लंदन में हुई थी। भारत में 10 अप्रैल 1936 को लखनऊ में और जुलाई 1936 में कोलकाता में सज्जाद जहीर के नेतृत्व में इसका गठन हुआ। इससे सआदत हसन मंटो, अली जावेद जैदी, प्रो. जोए अंसारी, डा. एमडी तासीर, फैज अहमद फैज, विजयदान देथा, खगेंद्र ठाकुर, भीष्म साहनी, प्रो. अहमद अली, डा. नुसरत जहां, राशिद जहां, अहमद नसीम कासमी, फैज अहमद फैज, हबीबी तालिब, गुलखान नसीर, कैफी आजमी, कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई, राजेंद्र सिंह बेदी, अली सरदार जाफरी, जोश मलीहाबादी, जां निसार अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी, गुलाम रब्बानी तावां, मख्दूम मोहिनुद्दीन, मुंशी प्रेमचंद, मजनूं गोरखपुरी, फिराक गोरखपुरी, अमृता प्रीतम, मजाज लखनवी, साहिर लुधियानवी और मुल्कराज आनंद जैसी हस्तियां इससे जुड़ी रही हैं। लंबे समय तक यह वाम साहित्यकारों का एकमात्र प्रतिनिधि संगठन रहा। कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के बाद इसका भी विभाजन होता गया।
1984 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से प्रेरित जनवादी लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन दिल्ली में संपन्न हुआ। प्रगतिशील लेखक संघ का एक बड़ा हिस्सा इसमें शामिल हो गया। आज तुलनात्मक दृष्टि से यह संगठन कुछेक इलाकों में सक्रिय है। स्थानीय स्तर की छोटी गोष्ठियां भले ही नियमित न हों लेकिन साल में कुछेक कार्यक्रम करा लेता है। अभी जन संस्कृति मंच के साथ इसके साझा कार्यक्रमों की पहल भी कई राज्यों में की जा रही है। प्रगतिशील लेखक संघ की प्रदेश इकाइयांं ही बची हैं। इसके राष्ट्रीय और प्रदेश इकाइयों की बागडोर वयोवृद्ध साहित्यकारों के हाथ में हैं। उनमें से कई तो अब कुछ बोलने समझने की स्थिति में नहीं रह गए है। नई पीढ़ी को नेतृत्वकारी भूमिका में लाने में इनकी दिलचस्पी नहीं है। निष्क्रियता का यह भी एक बड़ा कारण है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि लेखकीय गुण आत्मप्रेरणा से उत्पन्न होते हैं। सामाजिक विसंगतियों को लेकर अंदर की बेचैनी उसे कलम उठाने को प्रेरित करती है। कोई भी संगठन लेखक बनाने का कारखाना नहीं होता। यह सिर्फ विभिन्न पीढिय़ों के लोगों को एकजुट कर उनके बीच सामंजस्य कायम करने का मंच होता है। इससे लेखन यात्रा को गति और दिशा मिलती है। कुछ करने की तहरीक मिलती है।
बाजारवाद और उपभोक्तावाद के दौर में एक खास प्रवृति यह उत्पन्न हुई कि हर चीज का आर्थिक मूल्यांकन किया जाना लगा। जाहिर तौर पर साहित्य और पत्रकारिता में भी जन सरोकार की जगह बिकाउ माल की तलब होने लगी। इस मामले में लुगदी साहित्य आगे निकल गया। गंभीर साहित्य पिछड़ गया। बाजारवाद की इस कसौटी पर अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं ने तो अपनी जगह बना ली लेकिन कम से कम हिन्दी और उर्दू साहित्य खरा नहीं उतर पाया। इसका एक बड़ा कारण प्रकाशकों में जोखिम उठाने के साहस का अभाव रहा है। साहित्य के प्रकाशक सरकारी खरीद-फरोख्त से आगे बढऩे में हिचकते रहे। पुस्तक मेलों के जरिए उपभोक्ता बाजार तक पहुंच बनाने की छिटपुट कोशिशें जरूर हुईं लेकिन आक्रामक मार्केटिंग की शुरुआत नहीं की जा सकी। यह विज्ञापन का युग है। लेकिन हिन्दी-उर्दू का कोई प्रकाशक बड़े से बड़े लेखक की पुस्तक का प्रिंट अथवा इलेञ्चट्रोनिक मीडिया में विज्ञापन नहीं देता। उनके प्रचार-प्रसार के आधुनिक तौर-तरीके नहीं अपनाए जाते। इसलिए इन भाषाओं की कोई पुस्तक, चाहे वह कितनी भी रोचक और महत्वपूर्ण हो, बेस्टसेलर नहीं बन पाती। जबकि बाजार की शर्तों को पूरा करने वाली अंग्रेजी में बेस्टसेलर की बाढ़ सी आ गई है। कई बेस्टसेलर भारतीय मूल के अंंग्रेजी लेखकों के हैं। प्रकाशकों की सुरक्षात्मक मार्केटिंग के कारण उपभोक्ताओं तक सहीं साहित्य पहुंच नहीं पाता। उनसे सीधे तौर पर जुड़े कवि सम्मेलनों का स्तर भी गिरा है। इनके आयोजक अब हास्य-व्यंग्य या फूहड़ रचनाओं के जरिए ताली बटोरने वाले कवियों को प्राथमिकता देते हैं। जन सरोकार की कविताएं रचने वाले गंभीर कवियों को जनता के सामने नहीं लाया जाता।
जनवादी लेखक संघ से जुड़े अनवर शमीम कहते हैं, ‘उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन करोड़ों में होते हैं लेकिन साहित्य के प्रचार-प्रसार पर एक छदाम भी खर्च नहीं किया जाता। बाजार के साथ नहीं चलने पर पिछड़ जाना तो स्वाभाविक ही है।’
शिक्षा की दुनिया में निजी स्कूलों के बढ़ते वर्चस्व का असर भी पड़ा है। बुनियादी स्तर पर पाठ्य पुस्तकों का चयन स्कूल प्रबंधन स्वयं करते हैं। वे अपने हिसाब से इन्हें तैयार करवाते हैं। इस क्रम में हिन्दी की पुस्तकों में अपने परिचितों की रचनाएं डलवाते हैं। इसके कारण बच्चों को साहित्य का संस्कार नहीं दिया जा पाता। सामाजिक बदलाव के साहित्य से इनका परिचय नहीं हो पाता। पत्रकारिता में भी साहित्य का पन्ना गायब हो चुका है। अधिकांश अखबार साहित्यिक रचनाओं और गतिविधियों को प्रमुखता नहीं देते। साहित्यिक संगठनों की निष्क्रियता का यह भी एक कारण है।

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