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गुरुवार, 14 जून 2018

नक्सली इलाकों में अंधविश्वास का मतलब



झारखंड के माओवादी सिर्फ दहशत फैलाकर लेवी वसूल रहे हैं। जनता की पिछड़ी चेतना को उन्नत करने के लिए जन-शिक्षण का कोई कार्यक्रम नहीं चला रहे हैं। इसीलिए उनके सघन प्रभाव वाले इलाकों में भी भूत-प्रेत, डायन बिसाही जैसी आदिम आस्थाएं अभी तक बरकरार हैं। नक्सलवाद अथवा माओवाद एक वैज्ञानिक विचारधारा है। उसके अलमदार यदि सिर्फ पैसे उगाहने के लिए हथियार का उपयोग करते हैं तो उनसे किसी सामाजिक क्रांति या व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती। वामपंथ पिछड़ी चेतना को उन्नत करने की सीख देता है। पिछड़ी चेतना से ग्रसित जन किसी जन क्रांति का हिस्सा नहीं बन सकते। वामपंथ के सिद्धांतकार यह बात स्पष्ट कर चुके हैं।
पिछले बुधवार की घटना है। झारखं की राझधानी रांची से करीब 235 किलोमीटर की दूरी पर नक्सल प्रभावित पलामू जिले में 45 वर्षीय दलित महिला कलावती और उसके 25 वर्षीय भतीजे संजय राम को डायन होने के आरोप में ग्रामीणों ने पेड़ पर बांध दिया और उनकी पिटाई करने लगे। घटना छत्तरपुर प्रखंड के मदनपुर गांव के रविदास टोले की है। ग्रामीणों का मानना था गांव में कई मौतें कलावती के काले जादू के कारण हुई हैं। उसपर उसके किसी पितर का साया है और संजय राम इस काम में उसका मददगार है। अंधविश्वास में डूबे ग्रामीण उनकी पीट-पीटकर हत्या करने की तैयारी में थे कि तभी इतेफाक से किसी जागरुक ग्रामीण ने मोबाइल पर पुलिस को घटना की सूचना दे दी। ग्रामीणों के बीच यह बात फैला दी गई कि पुलिस चल पड़ी है और पहुंचने ही वाली है। इसका असर हुआ और पिटाई बंद कर उन्हें बंधनमुक्त कर दिया गया। पुलिस आई और भुक्तभोगियों को अपने साथ ले जाने लगी तो ग्रामीणों ने इसका जमकर विरोध किया। पुलिस अधिकारियों ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि काला जादू कुछ नहीं होता है। यह अंधविश्वास है लेकिन पीढ़ियों से मन की गहराई तक जमा अंधविश्वास अपनी जगह बरकरार रहा। भारी प्रतिरोध के बीच पुलिस किसी तरह उन्हें छत्तरपुर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक ले जा सकी। चोट तो दोनों को लगी थी लेकिन कलावती संजय से कहीं ज्यादा जख्मी और डरी हुई थी। ग्रामीणों का आरोप था कि डायनों को पुलिस जबरन छुड़ाकर ले गई और विरोध करने पर एक महिला की पिटाई कर उसकी टांग तोड़ दी। उन्हें इस बात पर भी आपत्ति थी कि पुलिस ने कलावती को सुरक्षा की दृष्टि से खजूरी ग्राम स्थित उसके मैके पहुंचा दिया था। रविदास टोला में किसी की भी कलावती से सहानुभूति नहीं थी। सभी उसे डायन मान रहे थे और सकी पिटाई को उचित करार दे रहे थे। पुलिस ने दोनों ओर से प्राथमिकी दर्ज करने की अपनी औपचारिकता पूरी की। टोले में अभी भी पुलिस के खिलाफ आक्रोश व्याप्त है।
दलितों को नक्सलियों का मुख्य सामाजिक आधार वर्ग में शुमार किया जाता है। दलितों के उस टोले के लोग अंधविश्वास में डूबे हुए हैं तो इसका सीधा मतलब है कि नक्सलियों ने उन्हें अपनी वैज्ञानिक विचारधारा से दीक्षित नहीं किया। सवाल है कि क्या लेवी का धन इकट्ठा करने से और गोला-बारूद जमा करने से, पुलिस बल पर हमला करने से भारतीय क्रांति संपन्न हो जाएगी...। झारखंड में किसी समय ईसाई मिश्नरियां भी आई थीं। उन्होंने कम से कम शिक्षा का प्रचार किया। आदिवासियों को जागरुक किया। आज भी उनके कामकाज के इलाकों के आदिवासी अपेक्षाकृत ज्यादा जागरुक और विकसित हैं। आखिर नक्सली उनके बीच कौन सा अभियान चला रहे हैं। अंध-आस्थाओं पर उन्होंने कभी प्रहार किया हो। जन अदालत लगाई हो इसका कोई दृष्टांत नहीं है। आखिर आदिवासी समाज में उनकी मौजूदगी से अंतर क्या आया है,,,। चरम वामपंथ की धारा की उपलब्धि, प्रासंगिकता और औचित्य क्या है....।  

-देवेंद्र गौतम

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