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गुरुवार, 28 जून 2018

झारखंड में फिर पताका लहरा सकती है कांग्रेस

रांची। झारखंड में कांग्रेस अपना खोया जनाधार भी वापस पा सकती है और फिर से अपना पताका लहरा सकती है। बशर्ते अपनी विभूतियों की सही पहचान और उनका सही इस्तेमाल करे। अभी इंटक के दो खेमो के विलय के निर्णय के बाद सकी संभावना प्रबल हो चुकी है। इंटक के रेड्डी गुट के महासचिव राजेंद्र प्रसाद सिंह एक मृदुभाषी, व्यवहार कुशल और सधी गोटियां चलने वाले राजनीतिज्ञ हैं तो दूसरे गुट के अध्यक्ष ददई दुबे बाहुबल के धनी।



इंटक नेता व बेरमो के पूर्व विधायक राजेंद्र प्रसाद सिंह की सोनिया और राहुल दरबार में एक कद्दावर मजदूर नेता के रूप में पहचान है। लेकिन सत्ता की राजनीति में उनकी प्रतिभा और सूझ-बूझ का कांग्रेस ने अभी तक इस्तेमाल नहीं किया है। उनकी प्रतिभाओं की सही परख अभी तक नहीं की गई है। चुनावों में उन्हें उनकी इच्छानुसार टिकट तो दे दिया जाता है लेकिन पूरे राज्य में उम्मीदवारों के चयन, चुनावी मुद्दों की पड़ताल, प्रचार की शैली आदि विषयों पर रणनीति तैयार करने में उन्हें सिर्फ परामर्शदात्री भूमिका तक सीमित रखा गया।  निर्णायक भूमिका में नहीं लाया गया। उन्हें करीब से जानने वाले जानते हैं कि यदि झारखंड में कांग्रेस उनके नेतृत्व में, उनकी रणनीति के आधार पर चुनाव लड़े तो आश्चर्यजनक नतीजे आ सकते हैं। पार्टी अपने खोये हुए जनाधार को वापस पा सकती है।
आजादी के बाद से लेकर संयुक्त बिहार के समय तक झारखंड में कांग्रेस और झारखंड नामधारी दलों का जनाधार सबसे बड़ा था। दोनों मिल जाते थे बड़ी ताकत बन जाते थे। झारखंड मुक्ति मोर्चा कांग्रेस के करीबी सहयोगियों में रहा। पटना और दिल्ली दरबार में यही झारखंड का प्रतिनिधित्व करते थे। अलग राज्य के गठन में अपनी भूमिका का लाभ भाजपा ने उठाया और अपनी पैठ बना ली। इस बीच कांग्रेस नेतृत्व से भी कुछ भूलें हुईं जिसके कारण जनाधार सिमटता चला गया। झामुमो ने तो आदिवासी कार्ड के नाम पर अपनी पकड़ बनाए रखी लेकिन कांग्रेस की चुनावी सफलताओं पर ग्रहण लगता चला गया। कांग्रेस आलाकमान ने कभी स बात पर गौर नहीं किया कि स्व. ज्ञानरंजन के बाद राजेंद्र प्रसाद सिंह ही एकमात्र नेता हैं जिनकी मजदूर वर्ग और बहिरागत आबादी के साथ आदिवासियों और सदानों में भी गहरी पैठ है। बोकारो जिले के आदिवासी तो उन्हें राजेंद्र सिंह की जगह राजेंद्र मुंडा कहकर पुकारते रहे हैं। सत्ता की किसी कुर्सी पर बैठने के बाद वे विकास के मामले में कभी क्षेत्र या जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करते। श्रमिक नेता के रूप में उनकी कोशिश होती है कि औद्योगिक प्रतिष्ठानों के सामुदायिक विकास राशि का ज्यादा से ज्यादा लाभ आसपास के ग्रामीणों को मिले।
2019 का चुनाव करीब है। कांग्रेस आलाकमान के समक्ष बड़ी चुनौती है। विपक्षी गठबंधन तैयार हो चुका है। उसे चुनावी सफलता भी मिल रही है। पार्टी भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए हर तरह का त्याग कर रही है। उसे झारखंड के संबंध में सोच-समझ कर निर्णय लेना चाहिए। अगर लोकसभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ हुए तो भी और अलग-अलग हुए तो भी।

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