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बुधवार, 13 जून 2018

अपने ही भष्मासुरों से घिरा पाक



 देवेंद्र गौतम
पाकिस्तान एक ऐसा देश है जहां लोकतंत्र सैनिक तानाशाही के साए में सांस लेता रहा है। एक झीना सा पर्दा है जो कई बार चेहरे सा हट गया है और परोक्ष सैनिक सत्ता तानाशाही का मुलम्मा चढाए प्रत्यक्ष सर पर सवार हो गई है। पूरी दुनिया जानती है कि वहां जनता की चुनी हुई सरकारें सेना के रिमोट से नियंत्रित होती रही हैं। सेना के जनरलों ने भारत को सबक सिखाने के लिए आतंकवादियों को पाला पोसा। उन्हें धार्मिक कट्टरता की घूंटें पिलाईं। अब उसके पाले हुए आतंकी इस्लामिक कानूनों के मुताबिक देश को चलाना चाहते हैं। 
कट्टरपंथियों के बीच आपसी अंतर्विरोध भी कम नहीं हैं। बरेलवी, अहमदिया और शिया वहाबियों से खार खाते हैं तो उन्हें खुद अलकायदा और आईएस का खौफ सताता है। जनता के अंदर उन्होंने भारत के खिलाफ इतना जहर भरा है कि आज हर पाकिस्तानी दहशतजदा है। स्थिति भयावह होती जा रही है।
दरअसल पाकिस्तान की स्थापना ही अनैतिक 'द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर हुई थी। 28 जनवरी, 1933 को चौधरी रहमत अली ने इंग्लैंड में 'नाऊ ऑर नेवर: आर वी लिव ऑर पेरिश फार एवर शीर्षक पैंफलेट जारी किया था। उन्होंने पाकिस्तान का नाम पेश किया था। बाद में कुछ लोग इसे इस्लाम से भी जोड़कर देखने लगे। हालांकि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना के दादा हिंदू थे। खुद जिन्ना भी पश्चिमी सभ्यता में ढले नास्तिक थे। इस्लाम में जो चीजें वर्जित  हैं ऐसी तमाम चीजों का वे बेधड़क सेवन करते थे। बाद में वही द्विराष्ट्र सिद्धांत के सबसे बड़े समर्थक बन गए। लेकिन वह पाकिस्तान को कभी भी एक धार्मिक रूप से कट्टर इस्लामी मुल्क नहीं बनाना चाहते थे। इस्लामीकरण की शुरुआत जिन्ना के गुजरने के बाद हुई जब लियाकत अली ने मार्च 1949 में ऑब्जेक्टिव रिजॉल्यूशन पेश कर इस्लामिक पाकिस्तान की बुनियाद रखी। कारण यह था कि लियाकत अली सहित पाकिस्तानी संविधान सभा के अधिकांश सदस्य भारतीय इलाकों से चुने गए थे। उनका पाकिस्तान का सपना तो पूरा हो गया लेकिन वहां उन्हें बाहरी के तौर पर देखा जा रहा था। उन्हें मुहाजिर कहा जाने लगा था। पाकिस्तान के लोग उन्हें दोबारा शायद ही चुनते। संविधान सभा के भारत से आए लोग समझते थे कि इस्लामीकरण के जरिए ही पाकिस्तान में सत्ता की राजनीति पर पकड़ बनाए रखी जा सकती थी। इसीलिए इस्लामिक देश घोषित कर मुल्ला-मौलवियों की ही के वर्चस्व का रास्ता खोलना उनके लिए आवश्यक हो गया था। उन्होंने यही नीति अपनाई।

बाद में लियाकत अली की हत्या कर दी गई। इसके बाद सेना के जनरल अयूब खान ने भी कट्टरपंथी ताकतों को प्रोत्साहित किया। उनके शासन काल में 1953 में अहमदिया मुसलमानों के खिलाफ दंगे भड़के। उस दंगे में 2,000 से अधिक अहमदिया मुसलमान मारे गए और 10,000 से अधिक बेघर हो गए। हालात काबू करने लिए पंजाब में मार्शल लॉ लगाना पड़ा। इससे जनरलों को सत्ता का स्वाद लग गया और फिर उन्होंने अक्टूबर 1958 में देश पर मार्शल लॉ थोप दिया। जल्द ही पाकिस्तान इस्लाम, सेना और अमेरिकी इम्दाद पर जीनेवाला परजीवी मुल्क बनकर रह गया।

इसके बाद जब जुल्फिकार अली भुट्टो लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर सत्ता में आए तो प्रारंभ में एक उदारवादी, पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगे शिक्षित कुलीन वर्ग के नेता थे। लेकिन बांग्लादेश बनने के बाद पश्चिमी पाकिस्तान पर पकड़ बनाए रखने के लिए उन्होंने भी कट्टरपंथी ताकतों को बढ़ावा दिया। पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश में इस्लाम के नाम पर भीषण रक्तपात मचाया। भुट्टो ने सेना पर लोकतांत्रिक सत्ता की पकड़ बनाने की कोशिश की, पर नाकाम रहे। जुलाई, 1977 में सेना ने उनकी सरकार का तख्तापलट कर दिया। इस घटना को उन्हीं के नियुक्त किए  जनरल जिया उल हक ने अंजाम दिया। अप्रैल 1979 में जिया ने भुट्टो को फांसी पर चढ़ा दिया। कट्टर इस्लामी सोच वाले जिया के आने से पाक सेना के साथ ही नागरिक समाज का भी तेजी से इस्लामीकरण हुआ। 1980 के दशक में उन्होंने आइएसआई के माध्यम से ऑपरेशन तुपाक शुरू किया। यह कश्मीर में अलगाववाद और आतंकवाद को भड़काने वाली त्रिस्तरीय कार्ययोजना थी। इसका मकसद भारत को टुकड़ों में बांटना था। इसके तहत आईएसआई ने लश्कर-ए-तोएबा जैसे छह आतंकी समूहों का गठन किया।

1980 के दशक में अफगान युद्ध ने पाकिस्तान के सियासी एवं सैन्य परिदृश्य को हमेशा के लिए बदल दिया। अपने सामरिक लक्ष्यों के लिए इस्लामाबाद खुद अमेरिका की अगुआई में चल रही लड़ाई में एक पक्ष बन गया। उसका मकसद अफगानिस्तान में पाकिस्तानी प्रभाव बढ़ाना था ताकि भारत के असर को कम किया जा सके। जिया ने कट्टर इस्लामी विचारधारा को प्रोत्साहन देने के साथ ही उदारवादी राजनीतिक समूहों और कार्यकर्ताओं पर शिकंजा कसा। पाकिस्तान में हो रहे मानवाधिकारों के इस हनन पर पश्चिमी जगत भी आंखें मूंदे रहा, क्योंकि जिया अफगानिस्तान में अमेरिका के छद्म युद्ध में मददगार बने हुए थे। सोवियत संघ से लड़ाई के लिए 1980 के दशक में जिया ने जिन इस्लामी चरमपंथियों को जन्म दिया, आज वही पाकिस्तान में उन्माद फैला रहे हैं। आज का पाकिस्तान तानाशाह जनरल जिया की नीतियों की ही छाया मात्र बना हुआ है, जिसे उनके बाद बेनजीर भुट्टो एवं नवाज शरीफ ने और आगे बढ़ाया।

आज पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था लुंजपुंज हो चुकी है। हिंसा और दहशत का माहौल बना हुआ है। तमाम वैश्विक नेता उसे एक नाकाम मुल्क करार दे रहे हैं। पाकिस्तान आतंक के मोर्चे पर दोहरी नीति पर चल रहा है। एक तरफ वह आतंकियों के खिलाफ अभियान चलाता है तो दूसरी तरफ तालिबान और कश्मीर में सक्रिय आतंकियों को मदद पहुंचाता है। अब अमेरिका भी उसके दोहरो चरित्र को समझ चुका है। उसने पाकिस्तान को दी जाने वाली सैन्य-असैन्य सहायता रोक दी है। पाकिस्तान अब साम्राज्यवादी चीन के रहमोकरम पर है जो उसे अपने शिकंजे में कसता जा रहा है। पाकिस्तान में उप-राष्ट्रवाद भी जोर मार रहा है। बलूच, पख्तून और सिंधी लोग पंजाबियों से आजादी के लिए अपने-अपने इलाकों में संघर्षरत हैं। कहां तो उसने भारत के टुकड़े करने की साजिश रची थी और कहां खुद उसके टुकड़ों में बंटने का खतरा मंडरा रहा है। इस्लामी आतंकवाद के जिस भष्मासुर को उसने पैदा किया था अब वही उसके सर पर हाथ रखने को आतुर है।

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