रांची। झारखंड में
अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के सवाल पर एक नई बहस की पृष्ठभूमि बन रही है। बहस इस
बात की कि ईसाई या इस्लाम कुबूल करने के बाद आदिवासियों को आरक्षण जारी रखना उचित
है अथवा अनुचित। राज्य सरकार धर्म परिवर्तन के बाद आदिवासियों को आरक्षण और
शिड्यूल् ट्राइव को देय अन्य सुविधाओं से वंचित करने पर विचार कर रही है। रघुवर
दास सरकार ने इस संबंध में महाधिवक्ता का मंतव्य मांगा था। महाधिवक्ता अजीत कुमार
ने सरकार के विचार को सही ठहराया है। उनका कहना है कि जो आदिवासी संस्कृति और
परंपराओं से दूर हो चुके हैं वे आरक्षण के हकदार नहीं हो सकते। अब इससे संबंधित
अध्यादेश लाने की तैयारी हो रही है। सरकार का मानना है कि आदिवासी धर्म परिवर्तन
कर ईसाई अथवा इस्लाम विरादरी में शामिल हो जाते हैं तो मुल्लों और पादरियों द्वारा
देय लाभ प्राप्त करते हैं और दूसरी तरफ आदिवासी के रूप में सरकारी प्रावधानों का
भी लाभ उठाते हैं। इसके कारण धर्म परिवर्तन को बढ़ावा मिलता है। केंद्रीय सरना समिति
और उनकी सामाजिक संस्थाओं ने सरकार के इस निर्णय का स्वागत किया है क्योंकि इससे
उनका हक मारा जाता है। दूसरी तरफ ईसाई आदिवासियों के पैरोकारों ने इसका विरोध किया
है। उनके मुताबिक धर्म परिवर्तन के बाद भी आदिवासी आदिवासी ही रहता है। सबसे बड़ा
असमंजस झारखंड नामधारी दलों के समक्ष उत्पन्न होगा। जो आदिवासी की राजनीति करते
हैं उन्हें दोनों का ही वोट चाहिए। मिश्नरियों से चुनाव के दौरान नेताओं को और भी
कई तरह के लाभ मिलते हैं। सरना और धर्म परिवर्तित आदिवासियों के बीच विवाद बढ़ेगा
तो दोनों को खुश रख पाना कठिन होगा। उनके हित आपस में टकराएंगे।
झारखंड में
आदिवासियों के धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया ब्रिटिश काल से ही चली आ रही है।
मिश्नरियों ने उनके बीच शिक्षा का प्रसार किया। उनके सशक्तीकरण में अहम भूमिका
निभाई। उनकी चेतना को उन्नत किया। अब उनका वोट बैंक मिश्नरियों की राजनीतिक शक्ति
का आधार रहा है। आरक्षण छिन जाने पर उनके रुत्बे में फर्क पड़ जाएगा।
यह भी सच है कि धर्म
परिवर्तन के बाद आदिवासी परंपराओं के नाम पर सबसे ज्यादा हो-हल्ला भी नव दीक्षित
ईसाइयों ने ही मचाया। आज खूंटी-खरसावां के जिन गांवों में पत्थलगड़ी के जरिए
समानांतर सरकार चलाने की कोशिश की जा रही है उसमें मुख्य भूमिका ईसाई धर्मावलंबी
आदिवासियों की ही है। सरना धर्म को मानने वाले इसे अपनी परंपरा का दुरुपयोग बता
रहे हैं।
बहरहाल रघुवर सरकार
जो निर्णय करती है उसपर टल रहती है। यह मामला एक नई बहस को जन्म देगा लेकिन लागू
होकर रहेगा। चाहे इसके राजनीतिक परिणाम जो भी हों।
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