झारखंड की रघुवर दास
सरकार ने भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल को लेकर विपक्षी दलों की चुनौतियों का जवाब
देने की पूरी तैयारी कर ली है। साथ ही अपनी पार्टी लाइन को भी कुशलता से आगे
बढ़ाने को प्रयासरत हैं। सरकार आदिवासी राजनीति को एक नई दिशा प्रदान करने जा रही
है जो सारे पुराने समीकरण को गड्ड-मड्ड कर सकता है। ज्ञातव्य है कि विपक्ष के नेता
हेमंत सोरेन ने विपक्षी गठबंधन के बैनर तले 5 जुलाई को भारत बंद का आह्वान किया
है। राज्य सरकार एक तरफ इस विधेयक के प्रावधानों को जनता के बीच ले जा रही है और
यह उनके लिए कैसे हितकर है, बता रही है, दूसरी तरफ सोरेन परिवार और झारखंड नामधारी
अन्य दलों के नेताओं की बखिया उधेड़ने में लगे हैं। उनके आरोपों के जवाब में जो
बातें कही जा रही हैं वह उनके आरोपों के मुकाबले हल्की पड़ रही हैं। इधर सरकार 30
जून से को हूल दिवस से 15 जुलाई तक आदिवासी जन उत्थान अभियान का आयोजन करने जा रही
है। यह कार्यक्रम हर उस गांव में होगा जिसकी आबादी 1000 से ज्यादा है और जहां 50
फीसद आदिवासी निवास करते हों। इसका उद्देश्य आदिवासी समाज को विकास की मुख्यधारा
से जोड़ना है। इस अभियान के जरिए आदिवासी समाज के साथ संवाद कायम होगा। विपक्षी
दलों पर आरोपों के तीर चलाए जाएंगे।
इसी बीच रघुवर सरकार
ने एक और अहम फैसला किया है। सरकार ने तय कर लिया है कि धर्म परिवर्तन कर चुके
आदिवासियों को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाएगा। उनका जाति प्रमाण पत्र भी निरस्त कर
दिया जाएगा। अभी तक केवल खतियान के आधार पर प्रमाण पत्र जारी होते थे। अब सरकार के
कार्मिक विभाग ने एक नया सर्कुलर जारी कर उनके रीति-रिवाज़, विवाह और उत्तराधिकार
प्रथा की जांच के बाद ही जाति प्रमाण पत्र दिया जाएगा। सरकार का मानना है कि इससे
धर्मांतरण पर रोक लगेगी और आदिवासियों को उनका पूरा हक मिल सकेगा। 2011 की जनगणना
के मुताबिक झारखंड में कुल आदिवासी आबादी 26 प्रतिशत है। उसमें ईसाई आदिवासियों की
जनसंख्या 14.4 प्रतिशत है जबकि सरना धर्म को मानने वाले आदिवासियों की 44.2 और
हिन्दू आदिवासियों की 39.7 प्रतिशत है। झारखंड सरकार ने यह निर्णय महाधिवक्ता की
सलाह के आधार पर लिया है। इसका राजनीतिक प्रभाव पड़ेगा। इससे आदिवासियों का ईसाई
गुट नाराज होगा लेकिन हिंदू और सरना आदिवासी खुश हो जाएंगे। ईसाइयों की नाराजगी से
भाजपा को खास असर नहीं पड़ेगा क्योंकि वे पहले से ही उसके वोटर नहीं हैं। फिर उनका
संख्याबल इतना नहीं कि चुनाव को प्रभावित कर सकें। विश्व हिन्दू परिषद लंबे समय से
धर्मांतरण पर रोक के लिए प्रयासरत है। अतः इस कार्रवाई से संघ भी प्रसन्न होगा और
भाजपा के केंद्रीय नेता भी खुश होंगे। सरना और हिन्दू आदिवासियों का भाजपा की ओर
झुकाव बढ़ेगा। इसका भरपूर लाभ मिलेगा। ठीक उसी तरह जैसे वर्ष 2000 में झारखंड
राज्य की स्थापना में अहम भूमिका का लाभ मिला था। तब झारखंड में कांग्रेस और
झामुमो का जनाधार सिकुड़ गया था और अधिकांश समय तक सत्ता की बागडोर भाजपा के हाथ
में रही थी। झारखंड मुक्ति मोर्चा अलग राज्य के आंदोलन में अहम भूमिका निभाने के
बावजूद अलग झारखंड में कभी जनता का इतना विश्वास नहीं जीत पाया कि अपने दम पर
सरकार बना सके। आंदोलन में अपने योगदान को लेकर वह स्वयं अपनी पीठ थपथपाता रहा जब
कि विरोधी उसपर झारखंड आंदोलन को बार-बार बोचने का आरोप लगाते रहे। झामुमो को सत्ता मिली भी तो
अन्य दलों के सहयोग से। जारखंड राज्य की
स्थापना के बाद रघुवर दास पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बने थे। उनके शपथ ग्रहम के
बाद से ही आदिवासी नेताओं ने उनपर निशाना साधना शुरू कर दिया था। लेकिन उन्होंने
यह साबित करने की कोशिश की कि आदिवासी नेता आदिवासियों को ठगते रहे हैं जबकि वे
वास्तव में आदिवासियों के हित में काम कर रहे हैं। फिलहाल मुख्यमंत्री जिस तरह
राजनीति की सधी हुई गोटियां चल रहे हैं उसका जवाब दे पाना विपक्षी दलों के लिए
आसान नहीं प्रतीत होता। झारखंड दिशोम पार्टी एक बार बंद का आह्वान कर अपनी फजीहत
करा चुकी है। अब 5 जुलाई को विपक्ष की परीक्षा है। फिलहाल वे यही रट लगाए हुए हैं
कि पूंजीपतियों को ज़मीन देने के लिए संशोधन विधेयक लाया गया है। लेकिन कैसे यह
नहीं बता रहे हैं। इसके प्रावधानों की व्याख्या के जरिए अपने दावे की पुष्टि नहीं
कर रहे हैं। अब सड़कों पर जोर-जबर्दस्ती किए बिना यदि विपक्षी गठबंधन के नेता 5
जुलाई के झारखंड बंद को सफल बना सके तभी जनता पर उनके प्रभाव का सही आकलन हो सकेगा
अन्यथा अराजक कार्रवाइयों का सहारा लेना उनकी पराजय और जन समर्थन के अभाव का ही सूचक
होगा।
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