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शनिवार, 23 जून 2018

लुगु पहाड़ के जंगलों में......







 कुछ यात्राएं ऐसी होती हैं जिनका एक-एक लम्हा स्मृति पटल पर स्थाई रूप से अंकित हो जाता है। कुछ घटनाएं इतनी हैरत-अंगेज़ होती हैं कि उन्हें दैवी प्रभाव मानने में आधुनिक सोच आड़े आती है और उनकी वैज्ञानिक व्याख्या संभव नहीं होती. ऐसी ही एक घटना हमारे साथ 1993-94 के दौरान पेश आई थी जब हम गोमिया के घने जंगलों में रास्ता भूल गए थे. विनोबा भावे विश्वविध्यालय के एन्थ्रोपोलोजी के विभागाध्यक्ष अंसारी साहब ने मेरे साथ गोमिया के लुगु पहाड़ पर चलने का प्रोग्राम बनाया था. घने जंगलों से भरे उस पहाड़ की साढ़े तीन हज़ार फुट ऊंचाई पर स्थित गुफाओं की यात्रा मैं 1987-८८ के दौरान कई बार कर चुका था और कमलेश्वर जी  के संपादन में उन दिनों प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका गंगा के लिए उसपर स्टोरी भी लिख चुका था. लिहाज़ा बेरमो कोयलांचल में मुझे उस रहस्यमय पहाड़ का जानकार माना जाता था.
               
  पहाड़ जंगल में ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ होने पर ही आनंद आता है. हमारे प्रोग्राम की चर्चा होने पर बेरमो कोयलांचल के दो पत्रकार मित्र ओम प्रकाश कश्यप और असफाक आलम मुन्ना भी साथ चलने के लिए तैयार हो गए. हम सफ़र की तैयारी में लग गए. चार-पांच दिन का राशन, मोमबत्तियां, टार्च आदि ले लिए गए. सामान ढोने और गुफा में भोजन बनाने के लिए एक आदमी को तैयार किया लेकिन सुबह के वक़्त जब हम ट्रेन पकड़ने के लिए बेरमो स्टेशन पहुंचे तो पट्ठा धोखा दे गया. पहुंचा ही नहीं. अंसारी साहब ने कहा कि दनिया स्टेशन पर उतरने के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता धनीराम मांझी के पास चलेंगे. वे कोई न कोई आदमी दे देंगे. हमलोग ट्रेन पर सवार हो गए. डेढ़-दो घंटे बाद ट्रेन दनिया पहुंची तो हम नीचे उतरे. उग्रवाद प्रभावित जंगलों के बीच एक छोटी सी बस्ती के पास स्थित यह बिना प्लेटफार्म का छोटा सा स्टेशन है जो थोडा ढलान पर पड़ता है. बाहर निकलने के लिए कच्चे रास्ते से ऊपर निकलना होता है. ऊपर आते ही एक मिटटी-फूस का ढाबा है. हमने वहां चाय-नाश्ता किया. धनीराम मांझी का घर दस कदम पर ही था. हम उनके घर पर पहुंचे. वहां उनके भतीजे से भेंट हुई. उसने हमारा स्वागत किया. नाश्ता-पानी कराया. पता चला कि आर्थिक नाकेबंदी के कारण पुलिस की दबिश बढ़ी है और नेताजी भूमिगत हो गए हैं. हमने उनके भतीजे को अपनी समस्या बताई साथ ही हमारी यात्रा की जानकारी माओवादियों तक पहुंचवा देने को कहा ताकि पहाड़ पर हमारी उपस्थिति से वे सशंकित न हों. उसने कहा कि गांव के ज्यादातर नौजवान जंगल में महुआ चुनने निकल चुके हैं. कोई गाइड मिलना मुश्किल है. फिर भी वह कोशिश करता है. कुछ देर बाद एक युवक मिला लेकिन वह पहाड़ की तलहट्टी तक ही पहुंचाने को तैयार हुआ. मैंने कहा कि मैं पहाड़ पर कई बार जा तो चुका हूं लेकिन जंगल के रास्ते बहुत याद नहीं रहते फिर भी चलते हैं. धनीराम जी के घर से निकलने के बाद हमने एक पहाड़ी नदी पार की इसके बाद छोटी-छोटी आदिवासी बस्तियों और तलहट्टी के जंगल के बीच से होते हुए आगे बढे. इस इलाके में ज्यादातर संथाल जनजाति के लोग रहते हैं. एक-दो टोले  बिरहोरों के हैं. इस जंगल में ज्यादातर सखुआ के छोटे बड़े वृक्ष हैं.  
       
  कच्ची पगडंडियों पर पांच-छः किलोमीटर चलने के बाद हम पहाड़ की तलहट्टी में पहुंचे. रास्ते में एक जगह पत्थरों का एक ढेर मिला. स्थानीय आदिवासी इसे पत्थर बाबा या वनदेवी का स्थान मानते हैं. मान्यता है कि पहाड़ पर चढ़ने के पहले इस स्थान पर एक पत्थर श्रद्धा के साथ चढ़ा देने पर रास्ते की बाधाएं दूर हो जाती हैं और जंगली जानवरों का भी भय नहीं रहता. हमने भी पत्थर बाबा को पत्थर समर्पित किया था.   
                    पहाड़ की तलहटी में  पहुंचाने के बाद हमारा मार्गदर्शक ललपनिया की और निकल गया. हम चढ़ाई की और जानेवाली  पगडंडी पर चल पड़े. थोड़ी दूर चलने के बाद पगडंडी से दो रास्ते फूट पड़े. बस यहीं मैं अटक गया. किस पगडंडी से जाना है याद नहीं आ रहा था. इस जंगल में भटकने का अंजाम बहुत बुरा हो सकता था. अभी हम सोच ही रहे थे कि पता नहीं किधर से एक काले रंग का देसी कुत्ता आया और एक पगडंडी पर चलने लगा. मैंने अंसारी साहब और पत्रकार मित्रों से उसके पीछे-पीछे चलने का इशारा किया. ऐसी कहावत है कि इस पहाड़ पर कोई रास्ता भटकता है तो कोई न कोई जानवर आकर रास्ता दिखा देता है. कभी बन्दर कभी दूसरा जानवर. अपनी आंखों से यह करिश्मा पहली बार देख रहा था. उस पहाड़ की आकृति ऐसी है कि शुरूआती डेढ़ हज़ार फुट की चढ़ाई बहुत ही तीक्ष्ण है. करीब 75 डिग्री के कोण पर चट्टानों के सहारे चढ़ना होता है. नीचे  गहराई की और  निगाह जाने पर कलेजा धड़क उठता है. हमारा मार्गदर्शक कुत्ता सामान्य तौर पर हमारे पीछे-पीछे चल रहा था लेकिन हम जहां अटकते थे वह आगे आकर रास्ता बता देता था. रास्ते में एक जगह झरने की कल-कल ध्वनि सुनाई पड़ी लेकिन कहीं झरना नज़र नहीं आया. इस रमणिक स्थल को गुप्तगंगा कहते हैं. दरअसल यहां पहाड़ की ऊंचाई से उतरता नाले का पानी चट्टानों के अन्दर से होकर गुजरता है. तीखी चढ़ाई का हिस्सा पार करने के बाद हमें चाय की तलब हुई. थोड़ी सूखी लकड़ी चुनी गयी. कुछ बड़े पत्थर चुनकर चूल्हा बनाया गया और नाले के पानी में चाय चीनी चढ़ा दी गयी. दूध की जरूरत भी नहीं थी और वह उपलब्ध भी नहीं था. इसके बाद करीब 1000  फुट की चढ़ाई अपेक्षाकृत आरामदेह है लेकिन अंतिम 1000 फुट की चढ़ाई सबसे कठिन है. इस हिस्से में गेरू की फिसलन भरी चट्टानों पर तीखी चढ़ाई चढ़नी होती हैं. अपना संतुलन बनाये रखना मुश्किल हो जाता है. गुफा से थोड़ी दूर पहले ललपनिया की और आती पगडंडी इस पगडंडी से मिलती है. ललपनिया में ही तेनुघाट विद्युत् निगम का सुपर थर्मल प्लांट है. 
                         उस दिन हम पगडंडियों के जंक्शन पर पहुंचने वाले थे कि ऊपर चढ़ाई पर 10-15 हथियारबंद युवकों का एक झुण्ड दिखाई पड़ा. उनमें 6-7 लोगों के पास देसी रायफलें थीं. शेष लोगों के पास तीर-धनुष, कुल्हाड़े आदि परंपरागत हथियार. उनकी नज़र हमीं लोगों पर टिकी थी. मैं समझ गया कि माओवादियों का दस्ता है. मैंने साथियों से कहा कि आपलोग चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आने दीजिये और सामान्य रूप से चलते रहिये. हमारे आगमन की सूचना उनतक पहुंची थी या नहीं कुछ पता नहीं था. बहरहाल हम  ऊपर की और बढ़ते गए तो रायफल वाले दो टुकड़ों में बांटकर अलग-अलग ढलान से तिरछे उतर  गए. वे हमें पीछे से घेर सकते थे. दो-तीन तीर-धनुष वाले हमारी और आये इससे पहले कि वे कुछ पूछते मैंने पूछा-'लुगु बाबा की गुफा अभी कितनी दूर है?' उसने जवाब दिया-'बहुत दूर है.'  ' अच्छा! ललपनिया की पगडंडी से यह जहां मिलती है वह जगह कितनी दूर है.'  उसके चेहरे पर नाराजगी के भाव उभरे. पूछा-जब जानता है तो पूछता क्यों है?'  'बहुत दिनों पर आये हैं इसलिए थोडा गड़बड़ा रहा था.' उनहोंने कोई जवाब नहीं दिया और नीचे की और चल दिए. हमारी सांस में सांस आई. इन घटनाओं से हमारे मार्गदर्शक कुत्ते को कोई मतलब नहीं था. वह हमारे साथ बना हुआ था.
                         थोड़ी देर बाद हम गुफा में पहुंचे तो वहां चबूतरे पर आदिवासी भगत और भगतिन मिले वे हमें देखते ही खुश हो गए. वे कई दिनों से आये हुए थे. उनका इरादा पूर्णिमा तक ठहरने का था लेकिन उनका राशन ख़तम हो गया था. दो दिनों से भूखे थे. हमने उन्हें मिक्सचर खाने को दिया. हवनकुंड में चाय चढ़ाई. उन्हें आश्वश्त किया कि हम काफी राशन लाये हैं. चिंता की बात नहीं.हमने बताया कि यह कुत्ता नहीं होता तो हम भटक जाते. आदिवासी दम्पति ने आश्चर्य से कहा कि यह तो यहीं गुफा में रहता है. नीचे कैसे चला गया. सब लुगु बाबा की कृपा है. रात को हवनकुंड के अलाव में लिट्टी बनायीं. भगत ने उसमें प्याज लहसुन डालने से मना किया. बोला कि दिन में प्याज-लहसुन डालकर खिचड़ी बनानी होगी तो गुफा के बाहर बना लेना. हमलोग अन्दर सादा  भोजन बना लेंगे. लिट्टी काफी स्वादिष्ट लगी. हमने कुत्ते को भी दिया उसने प्रेम से खाया.
                         अगले दिन हमलोग गुफा के बगल में बने मंदिर के बरामदे पर बैठ कर ब्रश कर रहे थे कि तभी माओवादियों का दस्ता आया. हमसे कुछ बोले बगैर वे करीब से गुजरे आगे जाकर दो-तीन फायर किये और जंगल में घुसते चले गए. मैंने अंसारी साहब से कहा कि प्राचीन सभ्यता के अवशेष गुफा के 100 गज के दायरे में ही खोजिएगा नहीं तो ये लोग हमें भी प्राचीन बना देंगे. पता नहीं उनको हमारे आने की खबर है कि नहीं. हमसे उन्होंने कोई बात तो की नहीं. इसके बाद खिचड़ी बनाने का मोर्चा ओमप्रकाश और मुन्ना ने संभल लिया. मैं अंसारी साहब के साथ थोड़ी दूर पर एक चट्टान पर बैठ गया. मानव सभ्यता के इस स्थान से संबंधों की संभावनाओं पर चर्चा होने लगी. इस बीच हम जिधर-जिधर भी गए वह कुत्ता साये की तरह हमारे साथ रहा. खिचड़ी पक जाने पर हम उसे लेकर नाले के पार चट्टानों के बीच चले गए. सखुआ के पत्तों पर उसे परोसा गया. एक पत्ते पर थोड़ी खिचड़ी कुत्ते के पास भी रख दी गयी. लेकिन आश्चर्य! उसने खिचड़ी को सूंघा और दूर जाकर बैठ गया. मुंह तक  नहीं लगाया. हड्डी और मांस खाने वाले जानवर को प्याज लहसुन से परहेज़  ? बात कुछ समझ में नहीं आई.
                    शाम के वक़्त रामगढ कैम्प के दो फौजी जवान पहुंचे. हमारी उनसे मित्रता हो गयी. हम उनके साथ घुमने-फिरने लगे. उनके आने के बाद वह कुत्ता पता नहीं  कहां चला गया. जाने कैसे वह समझ गया कि फौजियों के पहुचने के बाद हमारे भटकने का खतरा नहं है. अगले दिन मौसम बहुत ख़राब हो गया था. कुहासे की शक्ल में बादल मंडरा रहे थे. छिटपुट बारिश भी हो रही थी. शिकार खेलने, महुआ चुनने, लकड़ी काटने वाले भी जंगल में नहीं आये थे. फौजी जवानों ने कहा कि मौसम ख़राब है आपलोग भी हमारे साथ उतर चलिए. हमें उनका सुझाव सही लगा. हमने साथ लाया राशन भगत-भगतिन के हवाले किया और अपना सामान समेटकर उनके साथ चल दिए. वापसी के दौरान भी वह कुत्ता कहीं दिखाई नहीं पड़ा. हम समझ नहीं सके कि उसे कैसे पता चला कि अब वापसी में हमें कोई दिक्कत नहीं होगी.
     आज की तारीख में उस पहाड़ पर चढ़ना मुश्किल है। नतो उम्र इसकी इजाजत देगी न शरीर. प्रसन्नता की बात यह है कि झारखंड सरकार ने उसे पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने का फैसला किया है. वह आदिवासी आस्था का केंद्र तो है ही. प्राकृतिक पर्यटन का केंद्र भी बन सकता है। उसके हिल स्टेशन के रूप में विकसिन होने की पूरी संभावना है. लेकिन यह तभी संभव है जब माओवादी उस इलाके को खाली कर दें या उसका विकास होने दें.

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