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बुधवार, 20 जून 2018

बंदी का समाजशास्त्र

राजनीतिक दल बंद को विरोध के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। फिर उसे सफल बनाने के लिए सड़कों पर तांडव मचाते हैं। तोड़ फोड़, मारपीट, वाहन जलाने जैसे कृत्य करते हैं। इस तरह कराया गया बंद कभी भी जन समर्थन का प्रतीक नहीं होता। यह नुकसान के भय से सावधानी के तौर पर उठाया गया कदम होता है। कभी-कभी कुछ ऐसा मुद्दा सामने आ जाता है जब कोई दल बंद का आह्वान न भी करे तो जनता स्वतः स्फूर्त ढंग से बंद पर चली जाती है। इलाके के किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति या किसी व्यापारी का निधन होने पर स्वतः बाजार बंद हो जाता  है। इसके लिए किसी को आह्वान नहीं करना पड़ता। स्वतः स्फूर्त बंद ही मुद्दा विशेष पर जनता की राय का प्रतीक होता है अन्यथा दल विशेष की अराजकता का प्रदर्शन। भूमि अधिग्रहण विधेयक के संशोधन प्रस्ताव को लेकर झारखंड दिशोम पार्टी का बंद इसलिए सफल नहीं हो सका कि उसके पास सड़कों पर उधम मचाने के लिए पर्याप्त कार्यकर्ता नहीं थे। विरोध के कारणों की जानकारी आम अवाम तक नहीं पहुंच सकी थी या फिर वे सरकार के पक्ष को सही मान रहे थे। अब पांच जुलाई को सभी विपक्षी दल झारखंड को बंद कराने के लिए सड़कों पर उतरेंगे। इसके लिए पहले से ही कारयक्रम शुरू हो जाएंगें। लोगों तक अपनी राय पहुंचाई जाएगी। इसके बाद अगर लाठी डंडा लेकर जोर-जबर्दस्ती करने की जरूरत पड़ी तो विपक्ष को यह मान लेना चाहिए कि वे जनता को अपने पक्ष से सहमत नहीं करा  सके। स्वतः स्फूर्त बंदी में कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं आती इसलिए सरकार जोर-जबर्दस्ती नहीं कर सकती। लेकिन राजनीतिक दलों में इतना सब्र कहां।

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