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शुक्रवार, 22 जून 2018

पत्थलगड़ी आंदोलन है या कोई गहरी साजिश

सरना धर्मावलंबी परंपरा के इस रूप को देखकर हैरान

रांची। आदिवासी परंपरा के नाम पर आदिवासियों के उत्पीड़न का माध्यम बन गई है पत्थलगड़ी। दिलचस्प बात यह है कि ईसाई बन चुके आदिवासी इस आंदोलन को संचालित कर रहे हैं जबकि सरना धर्म के माननेवाले आदिवासी अपनी परंपरा के गलत इस्तेमाल को लेकर हतप्रभ हैं। राज्य सरकार के समझ असमंजस की स्थिति है। ज्यादा सख्ती करने पर आदिवासी विरोध का आरोप लग सकता है।
झारखंड की राजधानी रांची से लगे खूंटी जिले के इलाके में पांच आदिवासी युवतियों को भीड़ की मौजूदगी में अगवा कर तीन घंटे तक गैंगरेप की घटना के बाद कोहराम मचा हुआ है। यह घटना पत्थलगड़ी के इलाके में हुई है। वहां आदिवासी परंपरा की रक्षा के नाम पर बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया है। एक पीड़ित युवती के बयान के मुताबिक उन्हें एक षडयंत्र के तहत कोचांग मिशन स्कूल के पास कार्यक्रम के लिए बुलाया गया। बाजार में नुक्कड़ नाटक करने के बाद स्कूल में बुलाया गया। वहीं पर आए हथियारबंद लोगों ने पूछा कि वे यहां कैसे आ गईं और पांच लड़कियों को उन्हीं की गाड़ी पर उठाकर 10 किलोमीटर दूर जंगल में ले गए। वहां तीन घंटे तक सामूहिक दुष्कर्म करने के बाद वापस उसी जगह छोड़ गए जहां से उठा ले गए थे। इस घटना की साजिश में मिशन स्कूल के प्रिंसिपल तक की सहमति थी।
गैंगरेप के एक आरोपी का जारी किया गया स्केच
युवतियों का कुसूर यह था कि वे एक सामाजिक संस्था से जुड़कर मानव तस्करी के खिलाफ नुक्कड़ नाटक कर जागरुकता अभियान में शामिल थीं। उन्हें सबक सिखाने के लिए पत्थलगड़ी के इलाके में एक साजिश के तहत बुलाया गया था। पत्थलगड़ी के इलाके में प्रवेश करने का दंड इस रूप में दिया गया है। पत्थलगड़ी समर्थकों ने इस तरह परोक्ष रूप से सरकारी तंत्र को चुनौती दी है कि उनके इलाके में प्रवेश पर आदिवासी समाज को भी बख्शा नहीं जाएगा। युवतियों को भी नहीं। इसके अलावा वे मानव तस्करी को गलत नहीं मानते। इसके खिलाफ नहीं सुन सकते।
इस अराजक, अमानवीय और घृणित कार्रवाई के जरिए उन्होंने यह भी साबित कर दिया है कि वे आदिवासियों के भी सगे नहीं हैं। अपनी समानांतर सरकार चलाना चाहते हैं। उन्होंने धन-बल और हर्वे हथियार जमा कर लिए हैं। अब आइएस की तर्ज  पर उनका जंगल का कानून चलेगा।
अब उन इलाकों पर गौर किया जाए जहां परिंदों को भी पर मारने से रोका जा रहा है। पहली बात यह इलाके अफीम की अवैध खेती के लिए चिन्हित रहे हैं। यहां कई बार छापेमारी हो चुकी है। अफीम की फसल जब्त कर जलाई जा चुकी है। दूसरी बात यह इलाके माओवादियों के सघन प्रभाव वाले रहे हैं। तीसरी बात यहां मिश्नरियों का काम लंबे समय से चल रहा है। अधिकांश आबादी ईसाई धर्म में दीक्षित है।
स्पष्ट है कि आदिवासी परंपरा के नाम पर अफीम की खेती सुरक्षित ढंग से करने के लिए सुरक्षा कवच बनाया जा रहा है। वर्ना ईसाई धर्म अपनाने के बाद सरना धर्म की परंपराओं की रक्षा के लिए इतनी बेताबी क्यों...। दूसरी बात यह कि साधारण आदिवासियों के पास इतने आधुनिक हथियार और ऐसी आपराधिक प्रवृति कहां से आ गई। पत्थलगड़ी आंदोलन के आसपास के गांवों के सरना धर्मावलंबी आदिवासी पत्थलगड़ी के इस रूप का विरोध कर रहे हैं।
अब जरा उत्तर भारत में अंतर्राष्ट्रीय ड्रग माफिया के नेटवर्क और गतिविधियों पर एक नजर डालें। दो दशक पहले तक बिहार-उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित मोहनिया अफीम से हेरोइन तक की प्रोसेसिंग करने वाले भूमिगत कारखानों के केंद्र के रूप में चर्चित था। बाद में बिहार का सासाराम एक नए केंद्र के रूप में उभरा। इन अवैध भूमिगत कारखानों को कच्चे माल यानी अफीम की आपूर्ति बारावंकी के अफीम उपादक करते थे। उन्हें दवा औषधीय आवश्यकताओं के लिए सीमित मात्रा में अफीम उपजाने का लाइसेंस मिला हुआ था। वे तय रकबे से अधिक रकबे पर अफीम उपजाते थे और मोहनिया तथा सासाराम के ड्रग माफिया के हाथ बेच देते थे। एक बार बारावंकी के कुछ किसानों ने अफीम की जगह जापानी पुदीना की खेती की। इससे उन्हें जबर्दस्त आय हुई। इसके बाद अधिकांश किसान औषधीय पौधों की खेती करने लगे। अफीम की खेती की तरफ उनका रूझान कम होता गया।
इस प्रकरण के बाद ड्रग उत्पादकों को कच्चे माल की किल्लत होने लगी। इस समस्या को देखते हुए उन्होंने झारखंड का रुख किया और नक्सलियों के साथ हाथ मिलाया। इसी के बाद झारखंड के कुछ नक्सल प्रभावित इलाकों में अफीम की अवैध खेती होने लगी। अब आदिवासी परंपरा के नाम पर उन इलाकों को पूरी तरह सुरक्षित बनाने की कोशिश हो रही है।

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