उपचुनावों में लगातार अपनी जीती हुई सीटें गवांने के बाद भाजपा के शीर्ष नेताओं को समझ में आने लगा है कि उनका विजय रथ न मोदी के चमत्कार से संचालित था और न अमित शाह की रणनीतिक कुशलता से। संघ और भाजपा के समर्पित कार्यकर्त्ताओं की सक्रियता और आम जनता की आकांक्षाओं का लाभ भाजपा को मिल रहा था। शाह कार्यकर्त्ताओं की लगातार उपेक्षा करते रहे। उनसे जरखरीद गुलामों की तरह व्यवहार करने लगे। इधर नोटबंदी और जीएसटी की मार से बौखलाए देशवासियों का भी मोदी सरकार के प्रति मोहभंग होता गया। सरकार जनता के जख्मों पर मलहम लगाने की जगह बेतूकी दलीलें देती रही। मंत्रीगण गुस्सा भड़काने वाले बयान जारी करते रहे। शाह तो खैर खुद को बादशाह और चाणक्य के साक्षात अवतार समझने लगे। लोगों को यह समझाया जाता रहा कि उनका कोई विकल्प नहीं है। वे जो कर रहे हैं राष्ट्रहित में कर रहे हैं। तकलीफ हो रही है तो बर्दाश्त करें। जीडीपी और तरह-तरह की आंकड़ेबाजी के जरिए बताया जाता रहा कि भारत सबसे तेज़ अर्थ व्यवस्था बन चुका है। रोज कमाने-खाने वालों को भला इन आंकड़ो से क्या मतलब। उसे तो अपनी रोजी-रोटी पर भी संकट मंडराता दिखा। जीडीपी बढ़ने या घटने से से क्या अंतर पड़ता है।
इसी बीच विपक्षी दलों की एकता एक नई चुनौती के रूप में सामने आई। जनता
को मोदीराज से छुटकारा पाने का रास्ता दिखाई पड़ने लगा। अपने अहंकारी स्वभाव और
खुशफहमियों का ही भाजपा को खमियाजा भुगतना पड़ रहा है। शाह और मोदी को अब समझ में
आ रहा है कि राजनीतिक दल स्कूल नहीं होते जो हेडमास्टर की छड़ी से नियंत्रित होते
हों। कार्यकर्त्ताओं की पहुंच अगर नेता तक नहीं होगी। पार्टी के अंदर उनकी भावनाओं
की कद्र नहीं की जाएगी तो वे उदासीन होते जाएंगे। देशवासी जिस तरह अपने
प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री से बेहतर काम की उम्मीद करते हैं उसी तरह क्षेत्र के
लोग सत्तारुढ़ दल के कार्यकर्त्ताओं से अपनी समस्याओं के निदान की उम्मीद रखते
हैं। जब उन्हें पता चलता है कि उनकी पहुंच ऊपर के नेताओं तक नहीं है। पार्टी
अध्यक्ष और मंत्री-संतरी उन्हें मिलने का समय ही नहीं देते तो उनको तरजीह देना बंद
कर देते हैं। ऐसे में कार्यकर्त्ता वोटरों से किस मुंह से वोट मांगें। मोदी का
चमत्कार यहीं फेल हो जाता है।
अब जो स्थिति उत्पन्न हुई है उससे भाजपा से कहीं ज्यादा चिंतित संघ
है। संघ के लोग मोदी और शाह की जोड़ी को समय-समय पर सचेत करते रहे हैं। उनकी
नीतियों की समीक्षा कर उन्हें संभावित परिणाम से आगाह करते रहे हैं लेकिन उनकी
चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया गया। अब जब मामला फंसता नज़र आ रहा है तो संघ ही
चुनावी वैतरणी पार कराने वाला दिखाई दे रहा है। संघ और भाजपा नेतृत्व के बीच
लगातार मंथन चल रहा है। कार्यकर्त्ताओं की नाराजगी दूर करने के लिए चौपाल लगाने के
अलावा हर तरह के उपाय किए जा रहे हैं। संघ ने विपक्षी एकता के चक्रव्यूह को तोड़ने
और भाजपा की स्थिति मजबूत करने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। फिर भी 2014 के
परिणामों तक पहुंचना संभव नहीं दिख रहा है। चार वर्षों से अधिक अवधि तक आम जनजीवन
को तरह-तरह की परेशानियों में झोंकने के बाद डैमेज कंट्रोल में सरकार जितना विलंब
करेगी परिणाम उतना ही विपरीत आएगा। भारत की जनता चीजों का चुपचाप निरीक्षण करती
रहती है और चुनाव के वक्त अपना फैसला सुना देती है। ईवीएम का तिलस्म भी तभी चलता
है जब जनता का व्यापक समर्थन हो। बिहार में लालू प्रसाद बैलेट बाक्स से जिन्न
निकालते थे लोकिन जब समर्थन घटा तो उनका जिन्न भी चिराग के अंदर समा गया। अब लाख
घिसने पर प्रकट नहीं हुआ। सरकारी तंत्र का लाभ भी अनुकूल स्थितियों में ही मिलता
है। कर्नाटक में राज्यपाल ने पूरा साथ दिया लेकिन भाजपा की सरकार नहीं बनवा सके।
लिहाजा मोदी और शाह को खुशफहमियों की चहारदीवारी से बाहर निकलकर धरातल पर आना होगा
और जनता से वादा करना होगा कि अर्थ व्यवस्था में सुधार के नाम पर ऐसे प्रयोग नहीं
करेंगे जिससे लोगों की परेशानी बढ़े और नतीजा शून्य निकले। अगर प्रयोग करने भी हों
तो जाने-माने अर्थ शास्त्रियों से परामर्श कर, पूरा होमवर्क करके, उसका ब्लू
प्रिंट तैयार करने के बाद ही करें। उसके तात्कालिक और दीर्धकालीन प्रभावों पर मंथन
कर लें। लोग मोदी की आर्थिक नीतियों के कारण ही नाराज हैं और विकल्प की तलाश कर
रहे हैं। कांग्रेस के विकल्प में उन्होंने जिसे चुना अब उसके भी विकल्प की तलाश
करनी पड़ रही है। सरकार ने न कार्यकर्त्ताओं की भावनाओं की कद्र की न जन भावनाओं
को समझने की कोशिश की। नतीजा सामने है। अब संघ ही भाजपा के अस्तित्व पर मंडराते
संकट को दूर करने का रास्ता निकाल सकता है।
-देवेंद्र गौतम
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें