यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 22 जुलाई 2018

बोतल से निकलेगा असम समस्या का जिन्न



देवेंद्र गौतम

केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने असम में एनआरसी को 15 अगस्त, 1985 को हस्ताक्षरित असम समझौते के अनुरूप अपडेट किए जाने की घोषणा तो कर दी है लेकिन समस्या इतनी जटिल है कि समाधान के लिए यह काफी नहीं होगा। अभी और माथापच्ची करनी पड़ेगी। नई जटिलताएं उभरेंगी। राजनाथ सिंह ने पूरी प्रक्रिया माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार किए जाने और इसपर सतत निगरानी रखे जाने का भरोसा दिलाया है। उन्होंने विश्वास दिलाया कि एन.आर.सी. को लेकर जारी कवायद पूरी तरह निष्पक्षपारदर्शी एवं सतर्कतापूर्ण तरीके से जारी रहेगा। प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में सुनवाई किए जाने का पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे। प्रत्येक व्यक्ति को न्याय मिले और उसके साथ मानवीय तरीके से बर्ताव किया जाए यह सुनिश्चित किया जाएगा। साथ ही कानून के तहत सभी को समुचित समाधान उपलब्ध कराया जाएगा।
गृहमंत्री श्री सिंह ने स्पष्ट किया है कि 30 जुलाई को प्रकाशित किया जाने वाला एन.आर.सी केवल एक प्रारूप होगा। इस प्रारूप के प्रकाशन के बाद दावों एवं आपत्तियों के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध होंगे। सभी दावों एवं आपत्तियों की पूरी तरह जांच की जाएगी। दावों एवं आपत्तियों के निपटान से पूर्व सभी को सुनवाई का पूरा अवसर उपलब्ध कराया जाएगा। तब कहीं जाकर अंतिम एन.आर.सी प्रकाशित की जाएगी।
श्री सिंह ने राज्य सरकार से आग्रह किया है कि वह सुनिश्चित करे कि कानून और व्यवस्था बनी रहे। केंद्र सरकार असम सरकार को इस मामले में हर तरह की सहायता उपलब्ध कराएगी।
दरअसल असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण जनसांख्यिक ढांचा असंतुलित होता जा रहा है। इसीलिए लंबे समय से एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजंस का काम पूरा करने की मांग की जा रही थी। पूर्व की सरकारों ने इस मामले में उदासीनता का रुख अपना रखा था। मोदी सरकार बनने के बाद इस प्रक्रिया में तेजी आई। इस मामले को लेकर लंबे समय से असंतोष था। अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने तो एनआरसी का काम होने तक राज्य में आधार कार्ड बनाने की प्रक्रिया पर रोक की मांग की थी। उसका कहना था कि आधार कार्ड के जरिए गैरकानूनी घुसपैठिए भी असम का नागरिक होने का दावा कर सकते है। केंद्र सरकार ने विभिन्न सामाजिक योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आधार कार्ड को भले ही अनिवार्य बना दिया है। लेकिन विरोध के कारण असम में अब तक महज छह फीसदी लोगों का ही कार्ड बन सका है। आसू असम का ताकतवर संगठन है। आधार कार्ड बनाने की प्रक्रिया रोकने की उसकी मांग को नज़र-अंदाज नहीं किया जा सकता। आसू इस बात पर अडिग है कि नागरिकता के लिए कट ऑफ वर्ष 1971 ही रखा जाए। उससे पहले आने वाले लोगों को ही एनआरसी में शामिल किया जाना चाहिए। असम समझौते में भी 1971 को ही कट ऑफ वर्ष रखा गया है। लेकिन मोदी सरकार का अपना एजेंडा है। सरकार चाहती है कि बांग्लादेश, अफगानिस्तान व अन्य देशों से आने वाले हिंदुओं को असम में शरण और नागरिकता दी जाए। आसू समेत कई संगठन इसके पक्ष में नहीं हैं। वे 1971 के बाद आए हिन्दुओं को भी नागरिकता दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि इससे सामाजिक खाई बढ़ेगी।
 ज़मीनी सच्चाई यह है कि एनआरसी की वजह से राज्य में वैध तरीके से रहने वाले लाखों मुसलमानों के भी राज्य से बाहर निकाले जाने का खतरा पैदा हो गया है। इससे वे लोग दहशत में जी रहे हैं।
      असम में बांग्लादेशी घुसपैठ की समस्या बहुत पुरानी और जटिल है। यहां घुसपैठ के मुद्दे पर लंबा आंदोलन चल चुका है। आसू की अगुवाई में अस्सी के दशक में जबर्दस्त आंदोलन हुआ था। उसी की कोख से असम गण परिषद (अगप) का जन्म हुआ था। उस आंदोलन के बाद हुए चुनावों में इसी मुद्दे पर अगप को भारी बहुमत मिला था और प्रफुल्ल कुमार महंत राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने थे। उसके बाद से ही थोड़े-थोड़े अंतराल पर यह मुद्दा उठता रहा है।
      दरअसल, घुसपैठ की इस समस्या की जड़ें देश की आजादी के पहले तक फैली हैं। असम के प्रमुख इतिहासकार अमलेंदु दत्त के मुताबिक वर्ष 1911 में ब्रिटिश जनगणना आयुक्तों ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन पूर्वी बंगाल से राज्य में बड़े पैमाने पर घुसपैठ का जिक्र किया था। उसके एक साल बाद सिलहट डिवीजन को बंगाल से काट कर असम का हिस्सा बना दिया गया। इसके बाद मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ने लगी। उसी समय से हिंदू और मुस्लिम तबके के बीच झड़पों की शुरूआत हो गई।
वर्ष 1937 में कांग्रेस नेता जवाहर लाल नेहरु ने असम के विकास व समृद्धि के लिए पूर्वी बंगाल से लोगों के आने को सही ठहराया था। लेकिन देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने यह कहते हुए इस दलील का विरोध किया कि ब्रह्मपुत्र घाटी में बिहार के हिंदुओं को बसाना मुस्लिमों को बसाने से बेहतर है। आजादी के बाद कांग्रेस ने बड़े पैमाने पर घुसपैठियों को खदेड़ा था। बाद में गोपीनाथ बोरदोलोई सरकार ने इस नीति को धीमा रखने का फैसला किया था।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि एनआरसी अपडेट होने के बाद भी विवाद थमने वाला नहीं हैं। वैध दस्तावेजों के अभाव में यह साबित करना मुश्किल है कि कौन वर्ष 1971 से पहले असम में आया था और कौन उसके बाद आया। वर्ष 1971 से पहले राज्य में पहुंचे हजारों मुस्लिम परिवारों के पास अपनी पहचान के कोई कागजात नहीं है। ऐसे में उनके सिर पर बांग्लादेश भेजे जाने की तलवार लटक रही है। भारत सरकार ने वर्ष 1951 की जनगणना में शामिल तमाम लोगों और उनके वंशजों को एनआरसी में शामिल करने का फैसला किया है। लेकिन 1951 से 1971 के बीच आए अधिकांश लोगों के पास कोई कागजात नहीं हैं। उनको मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।
राज्य की मतदाता सूची में हजारों लोगों का नाम संदिग्ध नागरिकों की सूची में रखा गया है। मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद ऐसे तमाम लोगों को खदेड़ने और बांग्लादेश के साथ लगी सीमा सील करने का वादा किया था। कई अल्पसंख्यक संगठनों ने सरकार के फैसले के खिलाफ आंदोलन भी शुरू किया था। अब एनआरसी को अपडेट करने की घोषणा के साथ ही उनके सिर पर मंडराता खतरा लगातार गंभीर होता जा रहा है। इसकी प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही असम के सामाजिक, राजनीतिक क्षितिज पर तरह-तरह के बवंडर उठते दिखाई देंगे। मोदी सरकार के लिए उनसे निपटना आसान नहीं होगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

शाह साहब की दूरबीन

  हास्य-व्यंग्य हमारे आदरणीय गृहमंत्री आदरणीय अमित शाह जी दूरबीन के शौकीन है। उसका बखूबी इस्तेमाल करते हैं। अपने बंगले की छत पर जाकर देश के ...