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बुधवार, 18 जुलाई 2018

विरोध जताने के और भी थे तरीके


कानून के रक्षक ही बने भक्षक, दुष्परिणाम की नहीं थी कोई चिंता

देवेंद्र गौतम

झारखंड की सरज़मीन पर स्वामी अग्निवेश पर हमला किसी तरह भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि हमलावर सत्ताधारी भाजपा की एक इकाई के लोग हैं। उन्हें कानून हाथ में लेने के पहले सोचना चाहिए था कि उनके कृत्य का सीधा असर मोदी सरकार पर पड़ेगा और चुनावी वर्ष में यह नकारात्मक प्रभाव डालेगा। स्वामी अग्निवेश पत्थलगड़ी आंदोलन के दूसरे चरण की शुरुआत करने पाकुड़ आए थे। वे पहाड़िया जनजाति के लिए दामिने-कोह को अलग सोहरिया देश घोषित करने की मांग का समर्थन करने आए थे। यह मांग जोरदार तरीके से उठाया भी गया। स्वामी अग्निवेश पर हमले से अखिल भारतीय आदिम जनजाति विकास समिति अथवा हिल एसेंबली पहाड़िया महासभा के एजेंडे पर कास फर्क नहीं पड़ा। संवैधानिक रूप से न तो पत्थलगड़ी आंदोलन गलत है और न ही स्वायत्तता की मांग। लेकिन सवाल नीयत का है। आदिवासियों की परंपरा की आड़ में नक्सलियों के समानांतर शासन लागू करने की साजिश का है। सरकार ने यदि पेसा कानून लागू करने के साथ ही पंचायती राज की जगह स्वशासन को लागू कर दिया होता तो नक्सलियों को इसकी आड़ लेने का मौका नहीं मिलता। स्वामी अग्निवेश ने बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन वे एक विवादास्पद संत रहे हैं। नक्सलियों के साथ उनके मधुर संबंधों का कई बार संकेत मिल चुका है। निश्चित रूप से वे आदिवासियों के नहीं बल्कि नक्सलियों का मेहमान बनकर आए थे। भाजयुमो का इसी बात को लेकर विरोध हो सकता है।
लेकिन विरोध जताने का एकमात्र रास्ता हिंसक हमला नहीं है। विरोध के कई लोकतांत्रिक तरीके हैं। लेकिन लोकतंत्र भाजपा के डीएनए में नहीं है। इसका प्रमाण अमित शाह और स्वयं नरेंद्र मोदी अपने बयानों और कार्यों के जरिए कई बार दे चुके हैं। लोकतांत्रिक व्यक्ति अपने विरोधियों के भी सकारात्मक गुणों की सराहना करता है। भाजपा के लोग अपने विरोधियों को हिंदू विरोधी, पाकिस्तान समर्थक, सूअर और चोर तक कह बैठते हैं। यह कहीं से भी सभ्य और मर्यादित आचरण नहीं है। इसीलिए उनके कार्यकर्त्ता भी सीधे अराजक कार्रवाई पर उतर जाते हैं। चूंकि सत्ता में बैठे लोगों को भारतीय संविधान और इंडियन पैनल कोड पर अमल करना पड़ता है इसलिए अग्निवेश पर हमला करने वालों के खिलाफ मामला दर्ज करना पड़ा कार्रवाई करनी पड़ी। अगर विपक्ष न हो तो ये लोग सीधे फासीज्म पर तर सकते हैं। भाजपा और संघ से जुड़े लोग अराजकता को बहादुरी मानते हैं और लोकतांत्रिक तौर तरीकों को कायरता। लेकिन अभी तक वे यह नहीं समझ सके हैं कि भारत के लोग धार्मिक तो हैं लेकिन शांति के साथ जीना और शालीनता का व्यवहार करना पसंद करते हैं। हर समय बैल की तरह सिग लड़ाने को तैयार रहना भारत का स्वभाव नहीं है। अराजकता के जरिए माहौल को दूषित, तनावग्रस्त किया जा सकता है लेकिन चुनावी बेड़ा पार नहीं लगाया जा सकता है। राममंदिर मुद्दे को लेकर शुरुआत में हिंदुत्व का उन्माद जागृत हुआ था लेकिन धीरे-धीरे वह शांत होने लगा। उस समय जरा सी हवा देने पर देश के कई शहरों में दंगा भड़क उठता था। अब लगातार नफरत की फसल उगाने की कोशिश कुछ घंटे के उन्माद के बाद निरर्थक हो जा रही है। अगर वामपंथी लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखते तो दक्षिणपंथी भी उसे निरर्थक ही मानते हैं। दोनों इस देश की शांति व्यवस्था के लिए खतरा बन चुके हैं। लोकतांत्रिक और समाजवादी शक्तियां जातीयता और क्षेत्रीयता के आधार पर अपनी गोटी लाल करने में बेतरह बिखराव के कगार पर हैं। अभी जो एकता दिखाई दे रही है वह सिर्फ मोदीराज के खात्मे के लिए कायम हुई है। मोदीराज खत्म होने के बाद यह कितनी देर कायम रह सकेगा कहना कठिन है। देशवासियों को चरमपंथी ताकतों के बीच ही अपना भविष्य तलाशने की विवशता है।

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