‘किस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर’ गणेश ग़नी की पहली काव्य आलोचना की पुस्तक है जो आलोचना को रचना की शैली में प्रस्तुत करती है।गनी पेशेवर आलोचक इस अर्थ में नहीं हैं कि जिस तरह की आलोचना की परिपाटी और लीक हमारी भाषा के साहित्य में है, उस तरह की आलोचना गनी नहीं लिखते। किसी रचना को व्याख्यायित करने और पढ़ने का जो ख़ासा बोरियत भरा अकादमिक रवैया बना हुआ है, उससे भिन्न गनी अपनी अपनी आलोचना को स्वयं रचना में ढाल देते हैं, उनकी आलोचना रचना से टकराती नहीं है, उसके समानांतर चलती है। गनी आलोचना को लकड़हारे की तरह नहीं, माली की तरह बरतते हैं। सामाजिक अनुभवों के बरक्स रचना के पाठ की सैद्धांतिकी तो बहुत प्रचलित है पर गनी रचना को व्यक्तिगत अनुभवों के साथ पढ़ते हैं। यह लगभग नया नज़रिया है। इस प्रस्तुत पुस्तक में मौजूदा दौर में सक्रिय पचासेक कवियों के कवि कर्म को गनी अपनी कसौटी पर परखते हुए एक ऐसी कृति तैयार करते हैं, जिसमें काव्य है, कथा है, संस्मरण है, कवियों का भी जीवन है और कविता के निकष तो हैं ही, बल्कि कविता के निकष नये ढर्रे से बनते हुए दिखाई पड़ते हैं। बहरहाल यह पुस्तक आप अगर साहित्य के विद्यार्थी नहीं हैं, तो भी आपको अपने साथ जोड़ लेगी।
‘किस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर’ गनी की पहली किताब दरअसल खुद से एक संवाद है। ‘क़िस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर’ एक प्रक्रिया है सूक्ष्म और शुद्ध होने की। पिछले कई सालों में कई कविताओं से गुज़रते हुए जो कुछ भी भीतर-भीतर चलता रहा, उसे सीधे का़गज़ और कलम उठाकर प्रकट नहीं करके अपनी स्मृतियों के संसार में गुज़रते हुए संजोए रखा। यह यात्रा लम्बी और रोचक है परंतु तयशुदा नहीं है। बस एक सिरे से दूसरे सिरे तक की भटकन है। गनी कि़स्सागोई करते हैं अपनी स्मृतियों के साथ और उनके इस सफ़र में उनके समकालीन कवियों का योगदान दर्ज़ है।
गणेश गनी मूल रूप से हिमाचल प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र पांगी घाटी से सम्बद्ध हिन्दी कवि हैं। हिमाचल विश्वविद्यालय से बी.ए., जम्मू विश्वद्यालय से बी.एड., पंजाब विश्वविद्यालय से एम. ए. व एम.बी.ए. तथा इग्नू से पी.जी.जे.एम.सी. की पढ़ाई के उपरांत इन दिनों कुल्लू और मंडी के ग्रामीण इला़कों में एक निजी पाठशाला ग्लोबल विलेज स्कूल का संचालन कर रहे हैं।
गणेश गनी की कविताएं हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ‘वसुधा’, ‘पहल’, ‘बया’, ‘सदानीरा’, ‘अकार’, ‘आकण्ठ’, ‘वागर्थ’, ‘सेतु’, ‘विपाशा’, ‘हिमप्रस्थ’ आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘हिमतरु’ पत्रिका ने गणेश गनी की कविताओं पर एक विशेषांक भी प्रकाशित किया है।
‘किस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर’ गनी की पहली किताब दरअसल खुद से एक संवाद है। ‘क़िस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर’ एक प्रक्रिया है सूक्ष्म और शुद्ध होने की। पिछले कई सालों में कई कविताओं से गुज़रते हुए जो कुछ भी भीतर-भीतर चलता रहा, उसे सीधे का़गज़ और कलम उठाकर प्रकट नहीं करके अपनी स्मृतियों के संसार में गुज़रते हुए संजोए रखा। यह यात्रा लम्बी और रोचक है परंतु तयशुदा नहीं है। बस एक सिरे से दूसरे सिरे तक की भटकन है। गनी कि़स्सागोई करते हैं अपनी स्मृतियों के साथ और उनके इस सफ़र में उनके समकालीन कवियों का योगदान दर्ज़ है।
गणेश गनी मूल रूप से हिमाचल प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र पांगी घाटी से सम्बद्ध हिन्दी कवि हैं। हिमाचल विश्वविद्यालय से बी.ए., जम्मू विश्वद्यालय से बी.एड., पंजाब विश्वविद्यालय से एम. ए. व एम.बी.ए. तथा इग्नू से पी.जी.जे.एम.सी. की पढ़ाई के उपरांत इन दिनों कुल्लू और मंडी के ग्रामीण इला़कों में एक निजी पाठशाला ग्लोबल विलेज स्कूल का संचालन कर रहे हैं।
गणेश गनी की कविताएं हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ‘वसुधा’, ‘पहल’, ‘बया’, ‘सदानीरा’, ‘अकार’, ‘आकण्ठ’, ‘वागर्थ’, ‘सेतु’, ‘विपाशा’, ‘हिमप्रस्थ’ आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘हिमतरु’ पत्रिका ने गणेश गनी की कविताओं पर एक विशेषांक भी प्रकाशित किया है।
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