रांची। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भाजपा के सोशल मीडिया के योद्धाओं को संबोधित करते हुए कहा कि मीडिया का एक ग्रूप मोदी सरकार के खिलाफ अभियान चला रहा है जिसके कारण कार्यकर्ताओं में निराशा है। योद्धा होने का अर्थ ही है कि किसी न किसी के साथ उसका युद्ध चल रहा है।
शाह कहते हैं सारे चोर इकट्ठे हो गए हैं। अपने राजनीतिक विरोधियों को चोर कहना और स्वयं को खुदाई फौजदार समझना लोकतांत्रिक विचार तो नहीं हो सकता। आरोप तो भाजपा नेताओं पर भी लग रहे हैं। बहुत से सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं दिया जा रहा है। कटघरे में स्वयं शाह के पुत्र भी खड़े हैं। सत्ता में होने का यह मतलब कत्तई नहीं कि उनके सात खून माफ हैं और उनके खिलाफ कोई जांच नहीं होनी चाहिए।
सोशल मीडिया का जितना बेहतर इस्तेमाल मोदी सरकार कर रही है उतना अबतक किसी ने नहीं किया था। शाह ने सोशल मीडिया के योद्धाओं की एक बड़ी फौज पूरे देश में खड़ी कर रखी है। उन्होंने सोशल मीडिया पर शाह को चाणक्य और मोदी को अवतार के रूप में पेश कर रहे थे। लेकिन अतिशयोक्ति अलंकार में किए जा रहे दावे आम लोगों के गले के नीचे उतर जाएं यह जरूरी तो नहीं है। वे जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे वह विश्वसनीय नहीं बल्कि आक्रोश बढ़ाने वाला था। शाह के योद्धाओ के अंदर निराशा है तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं-एक तो प्रचार युद्ध में पराजय और दूसरा पार्टी की तरफ से उपेक्षात्मक रवैया।
दूसरा कारण ही निराशा का कारण हो सकता है। शाह और मोदी कार्यकर्ताओं से मिलने और उनकी बात सुनने से परहेज़ करते रहे हैं। वर्ना योद्धाओं ने तो इतनी तलवार भांजी कि उसके कई टुकड़े कर दिए।
विपक्षी दलों के पास सोशल मीडिया की न कोई समझ है न महत्व का अहसास । सोशल मीडिया पर मोदी सरकार के खिलाफ कोई संगठित ग्रूप नहीं काम कर रहा है। यह आम जनमानस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। विरोध के स्वर को सिरे से खारिज करना लोकतांत्रिक रवैया नहीं है। इसे तानाशाही कहते हैं। भारत जैसे विशाल देश में जब इंदिरा की तानाशाही नहीं चली तो बाकी लोग किस खेत की मूली हैं।
मोदी सरकार और पार्टी अध्यक्ष को अपने हर कृत्य को सही करार देने की जगह कभी-कभी आत्मनिरीक्षण और आत्मसमीक्षा भी करनी चाहिए। उनसे इस देश की जनता ने जो उम्मीदें लगा रखी थीं उसमें कितना खरे उतरे हैं, इसपर विचार करना चाहिए। अगर चूक हुई है तो उसे स्वीकार करना चाहिए। यह स्वस्थ परंपरा है। भारत की जनता सबकुछ बर्दास्त करती है लेकिन आत्मप्रवंचना नहीं। बड़बोलेपन को वह सुनती रहती है और समय आने पर बता देती है कि उसे यह पसंद नहीं है। यह सही है कि विपक्ष में जातिवादी और क्षेत्रवादी दलों की जमात है लेकिन भाजपा भी तो धार्मिक ध्रुवीकरण में विश्वास करती है। भारत के लोगों को आजादी के बाद अभी तक कोई आदर्श दल नहीं मिला। अपनी दुकान के पकवान को सबसे स्वादिस्ट और सबसे सस्ता तो कोई भी बता सकता है। उपभोक्ता उसे मान ही लें जरूरी नहीं है।
शाह कहते हैं सारे चोर इकट्ठे हो गए हैं। अपने राजनीतिक विरोधियों को चोर कहना और स्वयं को खुदाई फौजदार समझना लोकतांत्रिक विचार तो नहीं हो सकता। आरोप तो भाजपा नेताओं पर भी लग रहे हैं। बहुत से सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं दिया जा रहा है। कटघरे में स्वयं शाह के पुत्र भी खड़े हैं। सत्ता में होने का यह मतलब कत्तई नहीं कि उनके सात खून माफ हैं और उनके खिलाफ कोई जांच नहीं होनी चाहिए।
सोशल मीडिया का जितना बेहतर इस्तेमाल मोदी सरकार कर रही है उतना अबतक किसी ने नहीं किया था। शाह ने सोशल मीडिया के योद्धाओं की एक बड़ी फौज पूरे देश में खड़ी कर रखी है। उन्होंने सोशल मीडिया पर शाह को चाणक्य और मोदी को अवतार के रूप में पेश कर रहे थे। लेकिन अतिशयोक्ति अलंकार में किए जा रहे दावे आम लोगों के गले के नीचे उतर जाएं यह जरूरी तो नहीं है। वे जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे वह विश्वसनीय नहीं बल्कि आक्रोश बढ़ाने वाला था। शाह के योद्धाओ के अंदर निराशा है तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं-एक तो प्रचार युद्ध में पराजय और दूसरा पार्टी की तरफ से उपेक्षात्मक रवैया।
दूसरा कारण ही निराशा का कारण हो सकता है। शाह और मोदी कार्यकर्ताओं से मिलने और उनकी बात सुनने से परहेज़ करते रहे हैं। वर्ना योद्धाओं ने तो इतनी तलवार भांजी कि उसके कई टुकड़े कर दिए।
विपक्षी दलों के पास सोशल मीडिया की न कोई समझ है न महत्व का अहसास । सोशल मीडिया पर मोदी सरकार के खिलाफ कोई संगठित ग्रूप नहीं काम कर रहा है। यह आम जनमानस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। विरोध के स्वर को सिरे से खारिज करना लोकतांत्रिक रवैया नहीं है। इसे तानाशाही कहते हैं। भारत जैसे विशाल देश में जब इंदिरा की तानाशाही नहीं चली तो बाकी लोग किस खेत की मूली हैं।
मोदी सरकार और पार्टी अध्यक्ष को अपने हर कृत्य को सही करार देने की जगह कभी-कभी आत्मनिरीक्षण और आत्मसमीक्षा भी करनी चाहिए। उनसे इस देश की जनता ने जो उम्मीदें लगा रखी थीं उसमें कितना खरे उतरे हैं, इसपर विचार करना चाहिए। अगर चूक हुई है तो उसे स्वीकार करना चाहिए। यह स्वस्थ परंपरा है। भारत की जनता सबकुछ बर्दास्त करती है लेकिन आत्मप्रवंचना नहीं। बड़बोलेपन को वह सुनती रहती है और समय आने पर बता देती है कि उसे यह पसंद नहीं है। यह सही है कि विपक्ष में जातिवादी और क्षेत्रवादी दलों की जमात है लेकिन भाजपा भी तो धार्मिक ध्रुवीकरण में विश्वास करती है। भारत के लोगों को आजादी के बाद अभी तक कोई आदर्श दल नहीं मिला। अपनी दुकान के पकवान को सबसे स्वादिस्ट और सबसे सस्ता तो कोई भी बता सकता है। उपभोक्ता उसे मान ही लें जरूरी नहीं है।

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