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सोमवार, 10 जून 2019

वाह नीतीश जी! रिंद के रिंद रहे, हाथ में जन्नत भी रही




देवेंद्र गौतम

शब को मय खूब सी पी, सुब्ह को तौबा कर ली.
रिंद के रिंद रहे हाथ से ज़न्नत न गई।

मानिक जलालपुरी का यह शेर वर्तमान राजनीति परिदृश्य में जदयू सुप्रीमो सह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर सटीक बैठती है। उन्होंने ऐसी रणनीति अपनाई जिसकी तोड़ न भाजपा के पास है न एनडीए के पास और न विपक्षी महागठबंधन के पास। उनका एनडीए के साथ रिश्ता बिहार से शुरू होकर बिहार पर ही खत्म हो जाएगा। देश के अन्य राज्यों में वे अपने प्रत्याशी स्वयं खड़े करेंगे। जदयू के निर्णयों पर एनडीए का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। बिहार विधानसभा के चुनाव में वे एनडीए के साथ होंगे। लेकिन इसी वर्ष कुछ महीने बाद प्रस्तावित चार राज्यों के चुनावों में अकेले दम पर लड़ेंगे। यानी एनडीए के साथ हैं लेकिन भाजपा की उन नीतियों के साथ नहीं जो उनकी समाजवादी और धर्म निरपेक्ष छवि पर आघात करती हों।
नीतीश कुमार राजनीति के चाणक्य समझे जाते हैं। ऊपर से प्रशांत किशोर जैसे चुनावी रणनीतिकार उनके साथ हैं। उनकी हर चाल बहुत नपी-तुली होती है। वे कब क्या करेंगे उनके अलावा कोई नहीं जान सकता।
लोकसभा चुनाव में राजद के शून्य पर आउट हो जाने के बाद वे बिहार के सबसे बड़े जन नेता बन गए हैं। बिहार में सिर्फ लालू प्रसाद उनके समतुल्य थे। अभी वे जेल में हैं और गंभीर रूप से बीमार हैं। वे जमानत पर छूटे भी तो पहले की तरह सक्रिय राजनीति में शायद ही उतर पाएं। लालू स्वयं तो सज़ायाफ्ता होने के कारण चुनाव नहीं लड़ सकते लेकिन राजनीति के मैदान में उनकी मौजूदगी चुनाव की हवा बदल सकती है। उनके दोनों पुत्र उनका उत्तराधिकार नहीं संभाल पा रहे। माई समीकरण की हवा निकल चुकी है। बिहार के यादवों का एक हिस्सा राजद का दामन छोड़ चुका है। ऐसे में नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग बहुत प्रभावी हो सकती है। बिहार में भाजपा या कांग्रेस के अंदर उनके टक्कर का कोई नेता नहीं है। आज की तारीख में वे जिस भी खेमे में जाएंगे उसकी जीत सुनिश्चित हो जाएगी।
नीति कहती है कि जब घर मजबूत हो तो बाहर पांव पसारना चाहिए। नीतीश जी यही कर रहे हैं। यह अपनी पार्टी को राष्ट्रीय और स्वयं को पीएम एलीमेंट साबित करने का अनुकूल समय है।

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