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बुधवार, 1 अगस्त 2018

नोटबंदी के बाद अब वोटबंदी



असम में एनआरसी के जरिए 40 लाख लोगों की नागरिकता पर संशय की तलवार लटका दी गई है। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह दलील दे रहे हैं कि जिनके नाम छूट गए हैं वे दुबारा सके लिए आवेदन दे सकते हैं। किसी के साथ अन्याय नहीं होगा। सरकार सके जरिए बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान कर रही है और उनकी नागरिकता रद्द करने का प्रयास कर रही है। असम के लोगों की यह पुरानी मांग रही है। इसके लिए आंदोलन भी हो चुका है।
लेकिन इसकी प्रक्रिया ठीक आम चुनावों के पहले की गई इसके पीछे कारण पूरी तरह राजनीतिक है। मोदी सरकार अपने चुनावी वायदे पूरी नहीं कर पाई। बल्कि तरह-तरह के नियमों और प्रयोगों के जरिए लोगों को परेशानी में डालती रही। अर्थ व्यवस्था को इस कदर झकझोर दिया कि आमलोगों का जीना दूभर हो गया। कई परिवारों ने आर्थिक तंगी के कारण सामूहिक आत्महत्या कर ली। पूंजीपति वर्ग भले ही लाभान्वित हुआ लेकिन मध्यम वर्ग त्राहि-त्राहि कर उठा। इस वर्ग की नाराजगी दूर करने के लिए भावनात्मक झटके की जरूरत थी। उसी रणनीति के तहत सांप्रदायिकता की लहर पैदा करने की कोशिश की जा रही है। मोदी सरकार के नीतिकार जानते हैं कि अब मंदिर मुद्दा बहुत असर नहीं डाल सकेगा। इसलिए ध्रुवीकरण के लिए नए नए तकीके जमाए जा रहे हैं। अब मोदी सरकार के पास चुनाव के लिए इसके अलावा कोई मुद्दा नहीं बचा है। इसीलिए वह तरह-तरह के दांव खेल रही है। एनआरसी का काम अगर सरकार गठन के तत्काल बाद कराया जाता तो नागरिकता से खारिज किए गे लोगों को अपना नाम जुड़वाने और मतदान करने का मौका मिलता। अब नाम जुड़वाने का मौका तो दिया जा रहा है लेकिन इसकी प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही चुनाव का समय आ जाएगा और यह जो 40 लाख वोट विपक्ष के खाते में जाने वाले थे बर्बाद हो जाएंगे। दूसरी बात यह कि इससे पूरे देश में हिन्दुत्व की भावना प्रखर होगी और ध्रुवीकरण को बल मिलेगा। सरकार के कमान में यही एक तीर बचा है। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी से समर्थन वापस लेने से लेकर असम में एनआरसी तक उसी लक्ष्य को भेजने के लिए चलाए गए तीर हैं। 2016 में नोटबंदी का भी मुख्य लक्ष्य विपक्षी दलों की आर्थिक रूप से कमर तोड़ना था और अब नोटबंदी के बाद वोटबंदी की प्रक्रिया शुरू की गई है। जो 40 लाख लोग नागरिकता की परिधि से फिलहाल बाहर किए गए हैं वे मुसलमान हैं और भाजपा के वोटर नहीं हैं। उनमें से कौन नए सीमांकन के बाद आए और कौन इससे पहले साबित करना कठिन है। 1971 से पूर्व आए बहुत से लोगों के पास कोई दस्तावेज़ नहीं है। हालांकि आसू ने 1971 को डेडलाइन रखने की मांग की है। सरकार इसके लिए राजी है लेकिन वह चाहती है कि बांग्लादेश से जो हिन्दू असम आए हैं उनका नाम रजिस्टर में शामिल किया जाए। आसू असम की ताकतवर राजनीतिक पार्टी है। वह सरकार की इस दलील को शायद ही स्वीकार करे लेकिन एक तो इस विवाद के कारण एनआरसी की प्रक्रिया लंबे समय तक विवाद में रहेगी। इस बीच चुनाव निकल जाएगा। हिन्दुओं के अंदर यह संदेश तो जाएगा ही कि मोदी सरकार बांग्लादेशी हिन्दुओं को नागरिकता देना चाहती  है लेकिन विरोध के कारण नहीं दे पा रही है।
यह सच है कि विपक्षी गठबंधन भी बांटो और राज करो की नीति पर ही चलेगा। भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लेगी तो विपक्ष जातिवाद को बढ़ावा देकर ही चुनावी मैदान में उतरेगा। मुसलिम और दूसरे अल्पसंख्यक समूहों का समर्थन उसे बिन मांगे मिल जाएगा। बाकी जातीय समीकरण के आधार पर खाते में वोट जाएगा। विपक्ष के नेता असम प्रकरण को लेकर जितना शोर मचाएंगे भाजपा को उतना ही लाभ होगा क्योंकि हिन्दुओं में विपक्ष के मुसलिम प्रेम की प्रतिक्रिया होगी और जातीय भावना के ऊपर धार्मिक भावना हावी हो जाएगी। बहरहाल स्पष्ट है कि चुनाव में कल-बल-छल का पूरा इस्तेमाल होगा। इसकी शुरुआत हो चुकी है। नोटबंदी ने जितना तनाव उत्पन्न किया वोटबंदी ससे कहीं ज्यादा तनाव त्पन्न करेगी।

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